महत्व

कुमैयाँ

mahatv
सामाजिक सम्प्रेषण की दृष्टि से बोली को अधिक महत्व दिया जाता है,

क्योंकि किसी भी भाषासमाज में बोलने वाले लिखने वालों से ज्यादा होते हैंं।

किसी क्षेत्र विशेष की बोली ही कतिपय कारणों से सामाजिक प्रतिष्ठा अर्जित करके भाषा रूप में स्वीकृत हो जाती है

अर्थात् बोली से ही भाषा का मानक रूप विकसित होता है।

राज भाषा –

किसी राज्य में सार्वजनिक तथा प्रशासनिक कार्यो के लिए प्रयुक्त विचार विनिमय का साधन राजभाषा कहलाता है ।

राज्य के समस्त शासनादेशों, अभिलेखों और पत्र – व्यवहार में उसी का प्रयोग किया जाता है ।

पराधीन राष्ट्र की राजभाषा उसकी राष्ट्रभाषा से भिन्न हो सकती है ।

भारत में मुगलों और अंग्रजोें के शासन काल मे क्रमशः फारसी और अंग्रेजी में राज काज होता रहा ।

राष्ट्रभाषा –

किसी राष्ट्र की परिनिष्ठित भाषाओं में से सार्वजनिक कार्यों के लिए व्यवहृत माध्यम को राष्ट्रभाषा कहा जाता है ।

यह राष्ट्र के विभिन्न भाषा भाषियों के विचार विनिमय…

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पेड़ाे

pedo
सब्ज पत्तों को हिलाओ पेड़ाे
खुश्क सांसों को सजाओ पेड़ाे

अपना रिश्ता बहुत पुराना है
उसी रिश्ते को निभाओ पेड़ाे

हम समाए तुम्हारे जंगल में
तुम भी हर घर में समाओ पेड़ाे

हम बचाएंगे नस्ल पेड़ाें की
इसलिए हमको बचाओ पेड़ाे

हास्य

raddi

फस्क

पति : यो तु मि पछेट कै जनमौ बद्ल लिन्नैहै ?

पत्नी : पुरा्न जनमौ त मि के याद नाहन, पर ये जनम मैं मीलेे सोल सूंबार बर्त कर्छ, तब तुम मिल्छा पति रूप मैं।

पति : अगर तु बर्त नै कर्नी त ?

पत्नी : तब मी तुमूं है लै रदि्द आद्मि मिल्नो्।

भाषा

pahadi

पहाड़ी भाषा

‘भारत का भाषा सर्वेक्षण’ के लेखक ग्रियर्सन ने

भारतीय आर्य भाषाओँ को तीन उपशाखाओं में विभाजित किया –

बहिरंग, अन्तरंग और मध्यवर्ती. इन तीनों उपशाखाओं में

६ भाषा समुदायों तथा १७ भाषाओँ की गणना की गयी है.

इस वर्गीकरण में कुमाउनी/गढ़वाली को अर्थात मध्य पहाड़ी को

मध्यवर्ती उपशाखा के पहाड़ी भाषा समुदाय में स्थान दिया गया है.

पहाड़ी भाषा समुदाय हिमाचल प्रदेश के भद्रवाह के उत्तर-पश्चिम

से लेकर नेपाल के पूर्वी भाग तक विस्तृत है.

इसके तीन प्रमुख रूप हैं – पूर्वी, पश्चिमी व मध्य.

पूर्वी पहाड़ी नेपाल में बोली जाती है.

पश्चिमी पहाड़ी हिमाचल प्रदेश में प्रयुक्त होती है

और मध्य पहाड़ी उत्तराखंड में व्यवहृत होती है.

मध्य पहाड़ी के अंतर्गत गढ़वाल में गढ़वाली

तथा कुमाऊँ में कुमाउनी का प्रचलन है.

लोकसाहित्य

bagesar

कुमाऊँ

3 – लोकगाथाएं :

कुमाऊँ में प्रचलित छोटी-बड़ी लगभग एक सौ लोकगाथाएं

अपने पात्रों के माध्यम सेस्थानीय जन जीवन की विविध झांकियां दिखाती हैं।

विषय वस्तु के आधार पर इनके भी अनेक भेद किए गए हैं; जैसे – पारंपरिक गाथाएं,

पौराणिक गाथाएं, धार्मिक गाथाएं, वीर गाथाएं आदि।

4 – लोककथाएं : कुमाऊँ में अनेक प्रकार की लोक कथाएं प्रचलित हैं।

वर्ण्य-विषय की दृष्टि से इनके भी कई रूप मिलते हैं; जैसे – पशु-पक्षी संबंधी कथाएं,

भूत-प्रेत संबंधी कथाएं, धर्म संबंधी कथाएं, प्रकृति परक कथाएं, नीति परक कथाएं,

व्रत परक कथाएं, कारण मूलक कथाएं, हास्य मूलक कथाएं, बाल कथाएं आदि।

5 – लोकोक्तियां : अपनी संक्षिप्तता के कारण गागर में सागर

का आभास कराने वाली लोकोक्तियों को अनुभवों की बेटियां माना जाता है।

कुमाऊँ में आम बोलचाल में प्रचलित लोकोक्तियों को भी कई भागों में बांटा गया है;

जैसे – सामाजिक, दार्शनिक, ऐतिहासिक, जीव-जन्तु संबंधी, कृषि संबंधी, नीति परक, हास्य परक आदि।

उदाहरण – द्याप्त देखण जागसर, गंग नाण बागसर

लेखन

अपनी बोली

lekhan

लेखन :

सेवानिवृत्ति के उपरांत जब भारत सरकार के

संस्कृति मंत्रालय ने दो वर्ष के लिए ‘सीनियर फैलोशिप’ प्रदान की,

तब कुमाऊँ के लोकगीतों पर अकादमिक शोध करते हुए अपनी बोली के

लोकसाहित्य की विविधताओं की समृद्ध परंपरा भी हाथ लगी।

यदा कदा हिंदी पत्र पत्रिकाओं के लिए लिखने के साथ साथ फेसबुक में जिन माध्यमों से जुड़ा हूं,

उनके द्वारा  भी अपनी भाषा संस्कृति एवं लोकसाहित्य से संबंधी जानकारी बांटने की सदिच्छा है।

‘लोहाघाट लवर्स’ के लिए पोस्टिंग  करते हुए भी अपनी बोली ‘कुमैंया’ को अपनाना अच्छा लगा

और इस कोशिश में लिखते लिखते मेरे पास तमाम रचनाएं एकत्र हो गई हैं।

अगर ये आपको अच्छी लगेंगी तो मुझे भी अच्छा लगेगा।

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ग़ज़ल

gazlon

ग़ज़लों के पेड़ :

कागज पर ग़ज़लों के पेड़ उगाए हैं
चार-चार शेरों में भाव जगाए हैं

पहले शेर जड़ाें की माफिक गहरे हैं
और दूसरे तने बने इतराए हैं

शेर तीसरे शाख-टहनियों से फैले
चौथे में पत्ते-फल-फूल समाए हैं

ऊपर से इरशाद कर रहे हैं बादल
वाह-वाह करने को पंछी आए हैं

हास्य

miss

फस्क :

रम्य : क्वे ऐ रौछ्यो कि ?
दिन्य : मिस कौल ऐ रैछि।
रम्य : (कौल सैबै चेलि होलि) …. कसि छि ?
दिन्य : बांकि लंबि त नै छि।
रम्य : कि कौ त्वीले ?
दिन्य : मि कि कूंनूं … म्यर के कून तक त …
रम्य : के बात नै। अब आलि त च्या पेवे दिए।

ग़ज़ल

pedon

पेड़ाें की गजलें :

साँसों को महकातीं पेड़ाें की गजलें
सोए भाव जगातीं पेड़ाें की गजलें

कुदरत और आदमी के सम्बन्धों की
हर अहमियत बतातीं पेड़ाें की गजलें

जीव-जन्तुओं औ जंगल के रिश्ते का
हर  एहसास करातीं पेड़ाें की गजलें

कभी डराकर कभी डांटकर लोगों को
बहलातीं-समझातीं पेड़ाें की गजलें

लोकसाहित्य :

lok

लोकसाहित्य चिरजीवी होता है,

अत: सदियों तक जन मानस पर उसका प्रभाव परिलक्षित होता है।

मन के भावानुभावों से ओतप्राेत लोकगीतों का आकर्षण

और चारित्रिक विशेषताओं से ऊर्जस्वित लोकगाथाओं का रोमांच

अपनी मौलिकता के कारण दीर्घावधि तक

मौखिक परंपरा में जीवंत बना रहता है।

1 – लोकगीत

lok

लोकगीतों की दृष्टि से कुमाउनी लोकसाहित्य पर्याप्त समृद्ध है।

इनके अंतर्गत धार्मिक एवं मांगलिक कार्याें से संबद्ध संस्कार गीत, नृत्य प्रधान गीत,

अनुभूति प्रधान गीत, तर्क प्रधान गीत, संवाद प्रधान गीत, कृषि गीत, ॠतु गीत,

देवी-देवताओं के गीत तथा व्रत-त्योहारों के गीत आते हैं।

2 – कथागीत

कथागीत गेय होते हुए भी आख्यानपरक होने के कारण

लोकगीतों से भिन्न होते हैं। ये उनकी अपेक्षा लम्बे होते हैं

और इनमें किसी ऐतिहासिक, पौराणिक अथवा सामाजिक घटना का वर्णन होता है।

इनके भी कई प्रकार पाए जाते हैं; जैसे – संस्कार संबंधी, कृषि संबंधी, ॠतु संबंधी, शौर्य संबंधी आदि।