गज़ल : आदमी :

अपनी ज़ुबाँ से जब भी मुकरता है आदमी
जीते हुए भी उस घड़ी मरता है आदमी

यह जानते हुए भी कि हर चीज़ है फानी
क्यों अपने उसूलों से उतरता है आदमी

उम्मीद के पहाड़ पर मिलती है जब शि़कस्त
गिरता है चटखता है बिखरता है आदमी

जाता है गुमाँ टूट और आता है ़खुदा याद
जिस व़क्त मुश्किलों से गुजरता है आदमी

कुछ इस तरह का हो गया लोगों का रवैया
पढ़ता है और नौकरी करता है आदमी

जंगल में जानवर लगा करते हैं ़खतरना़क
शहरों में आदमी से भी डरता है आदमी

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