अनिवार्य :

 

anivarya

पुराने सारे संस्कार भी अब प्रचलन में नहीं हैं और संस्कार गीत केवल मांगलिक
संस्कारों के अवसर पर ही गाए जाते हैं। किसी संस्कार के प्रारम्भ में अनिवार्यत:
गाए जाने वाले गीत शकुनाखर कहलाते हैं। शुभ कार्य में उपस्थित होने के लिए
देवगण / पितृगण / बन्धु-बान्धव आदि को निमंत्रित करने वाले गीत ‘न्यूतणो’
के अन्तर्गत आते हैं।

अनिवार्य संस्कार गीतों में कर्मकाण्ड सम्बन्धी वे गीत भी सम्मिलित हैं, जिनका
विषय हिन्दू धर्म में वर्णित दस कर्मों पर आधारित है। आजकल लोकाचार में सात
कर्म ही प्रचलित हैं, जिनसे सम्बंधित गीतों में कर्मकाण्ड विषयक मन्त्रों की छाया
झलकती है। जिस कर्म में होम नहीं होता, वहां आबदेब और अग्निस्थापन के गीत
नहीं गाए जाते।

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संस्कार

sanskar

भारतीय जीवन में धर्म को विशेष महत्व प्राप्त है, अत: जन्म से मृत्यु पर्यन्त विविध
अनुष्ठान सम्पन्न होते हैं। ऐसे संस्कारों की संख्या महर्षि व्यास ने सोलह मानी है –

गर्भाधानं पुंसवनं सीमन्तो जातकर्म च
नामक्रिया निष्क्रमणो अन्न्प्राश्नम वपनक्रिया
कर्णवेधो व्रतादेशो वेदारम्भ: क्रियाविधिः
केशान्त स्नानमुद्वाहो विवाहाग्नि -परिग्रह:
प्रेताग्नि संग्रहश्चैव संस्कारा षोडसस्मृत: (व्यासस्मृति : १, ३-१४)

पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित वर्तमान जीवन पद्धति में दो नए संस्कार बढ़े हैं –
जन्म-दिवसोत्सव तथा विवाहदिवसोत्सव; जिनके कारण हर घर में परिजनों एवं
इष्ट-मित्रों के साथ प्रमुदित होने के अवसर आते हैं और जो सामाजिक स्नेह-सौहाद्र
की अभिवृद्धि की दृष्टि से भी लोकप्रिय प्रतीत होते हैं।

मेले

 

mele

सहनशील पर्वतों तथा संवेदनशील नदियों से सम्पन्न कुमाऊँ में एक
ओर देवी-देवताओं के असंख्य मन्दिर यहां की धार्मिक भावना का
झण्डा फहराते हैं तो दूसरी ओर मन्दिरों में उत्कीर्ण कलाकृतियों के
सुन्दर नमूने यहां की सांस्कृतिक साधना का डंका बजाते हैं। दिव्य
सौन्दर्य से अभिषिक्त उच्च शिखरों पर चतुर्दिक देवालयों की प्रतिष्ठा के
कारण इसे देवभूमि कहकर सम्मानित किया जाता है।

देवालयों में प्रतिवर्ष मेलों का आयोजन होता है। ये मेले प्राय: मकर
संक्रान्ति, विषुवत् संक्रान्ति, शिवरात्रि, चैत्राष्टमी, नन्दाष्टमी, अनन्त
चतुर्दशी, बसन्त पंचमी आदि शुभ अवसरों पर होते हैं, जिनमें सिर्फ
धर्म और आस्था का उत्सव ही नहीं होता,बल्कि मिलन और मनोरंजन
का पर्व भी होता है। कुमाऊँ में नन्दादेवी, उत्तरायणी, दूनागिरि, पूर्णागिरि,
जौलजीवी, देवीधुरा आदि मेले बहुत प्रसिद्ध हैं। ये मेले भी लोक संस्कृति
के द्योतक होते हैं।

शिल्पकार

 

 

 

shilp

संस्कृति का संबंध यद्यपि व्यक्ति के संस्कार एवं आचार-व्यवहार से होता है,
जब कि सभ्यता उसके खान-पान तथा रहन-सहन से संबंधित होती है,
तथापि इन्हें अन्योन्याश्रित ही माना जाता है, क्योंकि संस्कृति के बिना कोई
समाज सभ्य नहीं हो सकता और यही संस्कृति किसी समाज को अन्य समाजों
से पृथक् अथवा विशिष्ट बनाती है।

कुमाऊं की भाषा, रक्त और सांस्कृतिक परंपराओं का अध्ययन करने के उपरांत
कुछ विद्वान इस निष्कर्ष पर भी पहुंचे हैं कि खसदेश और किरात देश बनने से
पूर्व यहां कोल जाति का बोलबाला था।

इस जाति के शिल्पकार ही वास्तव में यहां के समाज के प्रारंभिक निर्माता हैं।
यहां की सभ्यता के विकास में गड़ से लेकर गढ़ तक कोई भी ऐसा काम नहीं,
जो इनके शिल्प से न निखरा हो; जलाशय से लेकर देवालय तक कोई भी ऐसा
मुकाम नहीं,जो इनकी कला से न संवरा हो।

मुसलमान

 

musal

कुमाऊँ पर मुसलमानों का शासन कभी नहीं रहा, पर कुछ चन्द राजाओं
के दिल्ली दरबार के साथ अच्छे सम्बन्ध थे.अपनी पूर्ववर्ती राजधानी चम्पावत
के पास खूना में उन्होंने दिल्ली और शेरकोट से चूड़ी बनाने वाले मनिहार बुलाकर
बसाये थे तथा परवर्ती राजधानी आलमगढ़ (अल्मोड़ा) में अपने दरबार में मुगलिया
दरबारों की तरह तमाम रिवाज अपना लिए थे और उनके अनुरूप कई विशेष कर्मचारी
भी नियुक्त किये थे. नतीजतन वहां अरबी, फारसी, तुर्की शब्दों का प्रयोग होने लगा.

इन राजकर्मियों के अलावा भी अपने कारोबार या और किसी वजह से अनेक
मुसलमान कुमाऊँ की हसीन वादियों में तशरीफ़ लाये. उनमें से जिन्हें यहाँ की
खूबसूरत वादियाँ भा गयीं, वे फिर यहीं के हो कर रह गए. उनके वंशजों की
बोलचाल के माध्यम से भी कुमाउनी में उर्दू का प्रभाव पड़ता और बढ़ता रहा.