प्रदूषण के प्रकार

prakarभारत में प्रदूषण आज एक गंभीर समस्या के रूप में उपस्थित है। जनसंख्या की वृद्धि के साथ बढ़ने वाले तरह तरह के प्रदूषण के फलस्वरूप तमाम लोग उन परिस्थितियों में जीने के लिए विवश हैं, जहां न पानी साफ है न हवा। इसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है, जिससे उनकी क्षमताएं शिथिल हो जाती हैं, आयु कम हो जाती है। इस तरह आम आदमी का जीवन कुल मिलाकर आज कई तरह के प्रदूषण झेल रहा है।

वैचारिक प्रदूषण

आध्यात्मिक परिवेश में भौतिकतावादी दृष्टिकोण के प्रभावशाली कार्यान्वयन के कारण होने वाले वर्ग संघर्षों, निजी स्वार्थों, भावात्मक आक्रोशों, विकृत मनोभावों से वैचारिक
प्रदूषण उत्पन्न होता है।

ध्वनि प्रदूषण

अत्यधिक उद्योगों, चैबीस घण्टे चलने वाले कारखानों, विविध प्रकार के वाहनों,
दैनिक जीवन में इस्तेमाल होने वाली मशीनों के प्रयोग से ध्वनि प्रदूषण बढ़ता है।

वायु प्रदूषण

कारखानों, वाहनों, चूल्हों, अंगीठियों और भट्टियों के धुंए के अलावा कीटनाशक दवाओं एवं परमाणु बमों के विस्फोटों से वायु प्रदूषण पैदा होता है।

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प्रदूषण :

pradushanयूं तो प्रकृति स्वयं भी समय समय पर अपने तत्वों में असंतुलन उत्पन्न करके पर्यावरण प्रदूषण का
कारण बनती है; जैसे :- भूकंप, ज्वालामुखी, समुद्री तूफान अथवा भूस्खलन आदि। लेकिन ऐसा
सदैव नहीं होता, अतः उसका प्रभाव मानव जीवन के लिए शाश्वत समस्या नहीं बनता। जब मनुष्य
के क्रिया व्यापारों द्वारा प्राकृतिक संतुलन बिगड़ता हैए तब उसका प्रभाव मानव के सामने समस्या के
रूप में उपस्थित होता है।

प्रदूषण के कारणों में निरंतर बढ़ती आबादी को सबसे ज्यादा जिम्मेदार ठहराया जाता है। आबादी वृद्धि
से उत्पादन की मांग बढ़ती हैए उत्पादन बढ़ने से कूड़ा करकट तो बढ़ता ही है, उत्पादनों की गुणवत्ता
में ह्रास होने लगता है या मिलावट की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। उत्पादन के लिए उद्योग और उद्योगों
के लिए वाहन बढ़ने से वातावरण में धुंए की मात्रा बढ़ती है।

पर्यावरण :

paryavaranपरि का अर्थ होता है चारों ओर इसलिए पर्यावरण का मतलब होता है चारों ओर का आवरण, जिसमें प्रकृति के वे सभी तत्व आते हैं, जो प्राणिमात्र को जीवित एवं स्वस्थ रखने के लिए आवश्यक माने जाते हैं। प्रकृति के उक्त तत्वों का एक निश्चित एवं संतुलित अनुपात होता है, जिसका निर्धारण भी प्राकृतिक रूप से स्वतः एवं सतत हुआ करता है। यदि किसी कारणवश इस अनुपात में असंतुलन उत्पन्न होता है, तो पर्यावरण प्रदूषित हो जाता है, जिसके परिणाम प्राणिमात्र के लिए घातक सिद्ध होते हैं।

अमरीका की राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी ने प्रदूषण का जो स्वरूप निर्धारित किया है, उसके अनुसार – प्रदूषण जल, वायु या भूमि के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों में होने वाला कोई भी अवांछनीय परिवर्तन है, जिससे मनुष्य, औद्यौगिक प्रक्रियाओं या सांस्कृतिक तत्वों तथा प्राकृतिक संसाधनों को कोई हानि हो या होने की संभावना हो। प्रदूषण में वृद्धि का कारण मनुष्य द्वारा वस्तुओं के प्रयोग के बाद फेंक देने की प्रवृत्ति और मनुष्य की बढ़ी जनसंख्या के कारण आवश्यकताओं में वृद्धि है।

कहानी और सिनेमा :

kahani

कहानी में आस्वादन के दो पक्ष होते हैं – लेखक एवं पाठक अथवा वक्ता तथा श्रोता, जब कि सिनेमा में
तीन पक्ष – लेखक, दर्शक व निर्देशक। यहां पर निर्देशक से तात्पर्य केवल एक व्यक्ति से नहीं, वरन् उसकी
पूरी टीम से है; जिसके अंतर्गत पटकथाकार, गीतकार, संगीतकार, छायाकार, नृत्यकार, संपादक, संवाद
लेखक तथा अभिनेताओं से लेकर लाइटमैन व स्पाॅटब्वाॅय आदि भी आते हैं।

हिंदी कथा साहित्य के इतिहास में प्रेमचंद को एक साहित्यकार के रूप में ही नहीं वरन् एक युग के रूप में
याद किया जाता है, क्योंकि उन्होंने अपने परिवेश में वर्तमान यथार्थ को अपनी रचनाओं का विषय बनाकर
हिंदी के कथासाहित्य को हिंदुस्तान का कथा साहित्य बनाने का महत्वपूर्ण निर्णय लिया और अपने समकालीन रचनाकारों के लिए सामंती व्यवस्था से त्रस्त ग्रामीण व शहरी नर-नारी के हित में रूढि़वादी समाज के खोखले अंधविश्वासों तथा सड़े गले रीति रिवाजों के विरुद्ध लेखनी के प्रयोग की दिशा आलोकित की।

पिछले दषकों में फिल्मों की विषयहीनता पर बहुत बहस हुई है और तमाम वाद विवाद के बाद यह भी मान लिया गया है कि फिल्में ऐसी चीज नहीं होतीं, जिनकी विषयवस्तु को इतनी गंभीरता से लिया जाए। फिर भी आज के बहुविध विकासषील युग में श्रेष्ठ साहित्य के समुचित फिल्मांकन में ऐसी कौन सी जटिलताएं हैं, जिन्हें सुलझाने में इक्कीसवीं षताब्दी का संपन्न फिल्मकार अपने आप को असमर्थ पा रहा है ?

प्रेमचंद :

premchand

हिंदी कथासाहित्यकारों में प्रेमचंद की रचनाओं पर सबसे ज्यादा फिल्में बनीं, क्योंकि अपनी रचनाओं
में उन्होंने केवल देश की आजादी की आकांक्षा ही अभिव्यक्त नहीं की; बल्कि जातिगत मिथ्याभिमान,
सामंतवादी शोषण, सांप्रदायिक मदांधता, मानसिक संकीर्णता, बाल विवाह, विधवा विवाह, दहेज,
निरक्षरता, अस्पृश्यता आदि अनेक ज्वलंत समस्याओं पर भी लेखनी चलाई। उनकी रचनाओं में उनका
युग अपने यथार्थ रूप में प्रतिबिंबित हुआ है। यह यथार्थ अपनी आदर्शोन्मुख्ता के कारण अनुकरणीय
प्रतीत हुआ और इसी प्रतीति ने हिंदी के सुरुचिसंपन्न फिल्मकारों को आकर्षित किया।

कहानियों पर बनी फिल्में –

1. मिल 1934 अजंता सिनेटोन
2. नवजीवन 1934 ,, ,,
3. स्वामी 1941 सिरको प्रोडक्षंस
4. हीरा मोती 1959 श्रीकृष्ण चोपड़ा
5. शतरंज के खिलाड़ी 1977 सत्यजित रे
6. सद्गति 1981 ,,

उपन्यासों पर बनी फिल्में –

1. सेवा सदन 1934 महालक्ष्मी सिनेटोन
2. रंगभूमि 1946 भावनानी प्रोडक्षंस
3. गोदान 1963 त्रिलोक जेटली फिल्म्स
4. गबन 1966 श्री सोरल और सोनथालिया

साहित्य व सिनेमा :

cinema

मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन के नाम पर आज के आम आदमी को विभिन्न श्रव्य दृश्य
माध्यमों ने इस प्रकार घेर लिया है कि उसे पुस्तकें या पत्रिकाएं पढ़ने के लिए समय
निकालना पड़ता है, बल्कि सच तो यह है कि साहित्य की बजाय फिल्मों के माध्यम
से ही शिक्षा-दीक्षा अथवा संदेश-उपदेश ग्रहण करना उसे अधिक सुहाता है; जो सिनेमा
घर के अलावा टीवी पर सर्वसुलभ हैं। विषय तथा शिल्प की रोचकता एवं लोकप्रियता के
कारणसिनेमा को संप्रेषण का सशक्त माध्यम माना जा रहा है।

जिस तरह साहित्य की अनिवार्यता भाषा, आवश्यक्ता पाठक और उद्देश्य मनोरंजन सहित
ज्ञानवर्धन है, उसी तरह सिनेमा की अनिवार्यता कैमरा,आवश्यकता दर्शक और उद्देश्य कला
सेधनोपार्जन है। सिनेमा में संवाद, नृत्य, गीत, संगीत आदि अनेक अवयवों के मध्य साहित्य
मेरुदण्ड की भूमिका निभाता है। जिस फिल्म का मेरुदण्ड जितना मजबूत होता है, वह फिल्म
उतनी ही बिकाऊ या टिकाऊ होती है।

विगत शताब्दी के मध्य में हिन्दी के जिन साहित्यकारों के कथासाहित्य पर फिल्में बनीं, उनमें
से भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा), सुदर्शन (धूप-छांव), सेठ गोविंद दास (धुआंधार), चंद्रधर
शर्मा गुलेरी (उसने कहा था), आचार्य चतुर सेन शास्त्री, (धर्मपुत्र/आम्रपाली), फणीश्वर नाथ रेणु
(तीसरी कसम), धर्मवीर भारती (सूरज का सातवां घोड़ा), प्रेमचंद (शतरंज के खिलाड़ी) के नाम
विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

बदलाव :

badlav

सांप्रतिक परिवेश में नर नारी समानता के सम्मुख सावधान की मुद्रा में स्थित प्रष्नचिह्न का तनाव
भारतीय संविधान की पुरुषों और स्त्रियों के समान अधिकारों की घोषणा के इतने साल के बाद भी
यथावत् है, क्योंकि अपेक्षाकृत उपेक्षित होने की दशा में नारी कहीं मायके में कुपोषण का शिकार है,
कहीं ससुराल में कम उम्र में मां बनने के लिए विवश है, कहीं नौकरी में मानसिक त्रास झेल रही है,
तो कहीं समाज में यौन शोषण से भयभीत है। यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि आज बालकों की
तुलना में बालिकाओं की संख्या निरंतर कम होती चली जा रही है।

बावजूद इसके भारतीय महिलाओं ने समाज के अलग अलग दायरों में अपनी असरदार उपस्थिति दर्ज
कराई है। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, केबिनेटमंत्री, लोक सभा अध्यक्ष,राज्यपाल,मुख्यमंत्री,राजदूत जैसे अनेक
महत्वपूर्ण पदों का सफलतापूर्वक दायित्व संभाला है। सेना, प्रशासन, शिक्षा व चिकित्सा के अतिरिक्त कला
के विविध क्षेत्रों में सराहनीय कीर्तिमान स्थापित किए हैं।

इतिहास :

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विभिन्न आक्रमणकारियों के आगमन तथा उनकी सत्ता की स्थापना के अनंतर भारत में नारी
की स्थिति में बदलाव दिखाई देता है। विदेशियों के अत्याचारों से बचने के लिए भारतीय नारी
कभी तलवार लेकर समर में कूद पड़ी, कभी सिंधौरा लेकर जौहर की ज्वालाओं में समा गई,
लेकिन हर नारी दुर्गावती या पद्मावती नहीं होती। अतः सामान्य नारी के लिए पर्दा प्रथा प्रारंभ
हुई। बाल विवाह की परंपरा पड़ी।

इन परिपाटियों ने सामाजिक दृष्टि से भले ही नारी की सुरक्षा की हो, पर शिक्षा से अवश्य वंचित
कर दिया। अशिक्षित होने के कारण वह अपने पति की सहभागिनी नहीं बन सकी, तो धीरे धीरे
उसकी स्थिति इतनी खराब हो गई कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की लेखनी तक भावविह्वल हो उठी –
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी।

अतीत :

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जहां तक भारत में नारी की स्थिति का प्रश्न है, वैदिक काल में वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
पुरुष की सहभागिनी रही। उसके बिना धार्मिक अनुष्ठान अपूर्ण माने जाते थे और वह आध्यात्मिक
विषयों पर शास्त्रार्थ कर सकती थी। रामायण महाभारत काल में भी नारी का स्थान महत्वपूर्ण बना
रहा। सीता और अनुसूया, गांधारी और कुंती, सावित्री ओर दमयंती की कथाएं आज तक यथावत्
प्रेरक बनी हुई हैं।

‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ की भावना से अभिभूत भारत की पुराकथाओं में अनेक ऐसे
प्रेरक प्रसंग मिलते हैं, जो तत्कालीन नारी की गरिमा की महिमा बताते हैं। इसके अतिरिक्त सम्राट अशोक
ने अपनी पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए दूर दूर भेजा था। मंडन मिश्र की धर्मपत्नी
भारती ने जगत्गुरु शंकराचार्य के साथ शास्त्रार्थ किया था, पर नारी की इस स्थिति को परिवर्तनशील समय
ने वैसा नहीं रहने दिया।

महिला शक्ति :

mahila

स्रष्टि के सनातन रथ के दो पहिए हैं – एक नर और दूसरा मादा। इनमें से किसी एक के अभाव
में सामान्यतः जीवन आगे नहीं बढ़ सकता। नर को परुषता और नारी को मृदुलता का प्रतीक माना
जाता है। शिवशंकर के अर्धनारीश्वर स्वरूप की कल्पना में कठोरता और कोमलता के समन्वय से यह
तथ्य भी स्पष्ट होता है कि ये दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं, अपितु पूरक हैं। संभवतः इसीलिए भक्ति
साहित्य में देवी देवताओं की युगल रूप में उपासना प्रारंभ हुई होगी।

नर नारी के युगल स्वरूप की पूर्णता को ध्यान में रखते हुए हमारे देश में प्राचीन काल से ही नारी को
पर्याप्त सम्मान दिया जाता रहा है। मां के रूप में आदर, बहन के रूप में स्नेह, पत्नी के रूप में प्रेम और
पुत्री के रूप में वत्सलता की अधिकारी नारी वास्तव में कई प्रकार से अपनी सामाजिक भूमिका अदा करती
है। वह ब्रह्मा की तरह सृजनकारी है, तो विष्णु की भांति पोषणकारी भी और आवश्यकता पड़ने पर शिव जैसी प्रलयंकारी भी हो जाती है।