विशेष: वोट की राजनीति:
सांप्रदायिकता का जहर कभी संघर्ष और कभी आंदोलन के रूप में असर दिखाता है तथा कभी राजनीतिक हलचल पैदा करके राष्ट्रीय विचारधारा में अशांति उत्पन्न करता है। लोकसभा अध्यक्ष अनन्तशयनम् आयंगर ने एक बार कहा था कि ‘प्रजातंत्र के उचित कार्य निष्पादन और राष्ट्रीय एकता के विकास और संगठन के लिए जरूरी है कि भारतीय जीवन में से सांप्रदायिकता का उन्मूलन किया जाए।’
जैसे और बहसें खास मुद्दे से हटकर नया मोड़ ले लेती हैं, वैसे ही साम्प्रदायिक उन्मूलन को लेकर जो विवाद प्रारंभ हुआ और जो प्रस्ताव रखे गए, उन्हें पारित करने के लिए जवाहरलाल नेहरू ने विशेष जोर नहीं दिया। मुसलमानों को अल्पसंख्यक कहकर उुन्हें विशेष संरक्षण दिया गया, ताकि उनके वोट हाथ से न निकलने पाएं। केरल में मुस्लिम लीग और कांग्रेस की मिली जुली सरकार बनने पर चैधरी चरण सिंह ने कहा था कि – ‘यह साम्प्रदायिकतावाद को बढ़ावा दिया जा रहा है।’
तब से लेकर अब तक साम्प्रदायिकतावाद चिंतन मनन और वाद विवाद का विषय तो बना हुआ है, पर सांप्रदायिक दलों पर रोक लगाने का इरादा कामयाब नहीं हो पाया है। कभी काशी हिंदू विश्वविद्यालय के नाम में से हिंदू शब्द हटाने का अभियान चलता है, तो अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से मुस्लिम शब्द हटाने पर जोर दिया जाता है। इसके अलावा आरक्षण की नीति साम्प्रदायिकतावाद के मूल में पोषण का महत्वपूर्ण कार्य करती है, जिसका लाभ अल्पसंख्यक वर्गों तक सीमित रहता है और हानियां बहुसंख्यक वर्गों के हिस्से में आती हैं।
अब भी सरकार आरक्षण की नीति को महत्व दे रही है, जिसके परिणामस्वरूप सारे देश में अशांति की लहर दौड़ गई है और युवावर्ग तरह तरह से अपना आक्रोश व्यक्त कर रहा है। जब बेरोजगारी की समस्या सभी के लिए समान है, तब किसी वर्ग विशेष के लिए अतिरिक्त सुविधा क्यों ? क्या इसके पीछे वोट की राजनीति और आरक्षण का मिला जुला प्रतिबिंब नहीं झलकता ? सम्प्रदायवाद द्वारा एक देश के नागरिकों को विभाजित कर अल्पसंख्यकों को तुष्ट करने की यह राजनीतिक साजिश नही ंतो और क्या है ? क्रमशः