अनेकरूपता :

anek

सत्रहवीं शताब्दी से मुसलमान, ईसाई लोग भी कुमाऊँ में आकर बसने लगे, जिसके फलस्वरूप उर्दू,
फारसी के कई शब्द कुमाउनी में आए। ईसाई पादरियों ने सन् 1950 के उपरान्त अपना धर्म प्रचार
आरंभ किया। नैनीताल, द्वाराहाट, अल्मोड़ा, पिथौरागढ़ में उनके कार्यालय खुले। उन्होंने कुमाऊँ के
निम्न वर्ग को शिक्षित बनाने में पर्याप्त योग दिया। नतीजतन आम आदमी कुमाउनी मेें आगत अंगे्रजी
के शब्दों को स्थानीय उच्चारण के अनुरूप ढाल कर भी बोलता है।

एक विस्तृत पर्वतीय भू-भाग में व्यवहृत होने, लेकिन आवागमन की असुविधाओं के कारण पारस्परिक
सम्पर्क कम होने से कुमाउंनी में अनेकरूपता पाई जाती है। कुमाउनी बोलियों का जातिगत विभेद भी
दृष्टव्य है। जैसा कि स्वयं ग्रियर्सन ने खसपर्जिया बोली का विवेचन करते समय संकेत किया था। यह विभेद
स्थानीय जनसाधारण की शिक्षा-दीक्षा, सामाजिक स्थिति तथा आवागमन की सुविधा असुविधा पर निर्भर है।

ब्राह्मण जाति की बोली स्वभावतः परिष्कृत होगी, क्योंकि  संस्कृत के पठन-पाठन के कारण एवं पौरोहित्य
कर्म सम्पादित करने के कारण वह तत्सम प्रधान होती है। इसके विपरीत राजपूत तथा शिल्पकार वर्गो की
भाषा स्थानीय वातावरण के अनुसार अनगढ़ बनी रहती है ; जैसे – लोहार, सुनार, बढ़ई, हुड़किया, हलिया,
राज, मजदूर आदि।

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कुमाउनी :

 

 

kumaunकुमाउनी भाषा का प्राचीन उदाहरण चौदहवीं शताब्दी के एक ताम्रपत्र में मिलता है,
जिसकी लिपि देवनागरी है। इसकी भाषा वर्तमान बोलचाल से पर्याप्त पृथक् है। इसी
तरह के कुमाउनी में ताम्रपत्र – भारतीचंद ।1437-1450। भीष्म चन्द ।1555-1560।
और कल्यानचंद ।1560-1565। के प्राप्त होते हैं, जिनकी तुलना करने के ज्ञात होता
है कि कल्यानचन्द के ताम्रपत्रों की कुमाउनी भाषा एवं लिपि दृष्टियों से परिष्कृत है।

चंद राजाओं के समय लगभग चौदहवीं शताब्दी से ब्राह्मणों की संख्या बढ़ी, जिन्हें राजगुरू,
पुरोहित, मन्त्री, वैद्य, ज्योतिषी, धर्माध्यक्ष, सेनापति आदि के पदों पर नियुक्त किया गया।
बाहर से लोगों के आने का दूसरा कारण यह है कि मध्यकाल में यह भाग सपादलक्ष के
नाम से प्रसिद्ध था, जिसमें गूजर आकर बस गए थे।

मुसलमानी काल में बहुत से राजपूत यहाँ आकर बसे। राजस्थान के साथ कुमाऊं का घनिष्ठ
सम्बन्ध भाषा के आधार पर सिद्ध होता है। वहां से क्षत्रिय जातियों का आवागमन होता रहा।
तीसरा प्रमुख कारण धार्मिक था। कुमाऊँ-गढ़वाल में बद्रीनाथ, केदारनाथ, हरिद्वार, जागेश्वर
जैसे तीर्थ स्थानों की यात्रा पर आने वाले अनेक लोग यहीं बस गए।

परिशिष्ट :

 

parishisht

पिथौरागढ़ जिले के धारचूला से प्रारंभ होने वाले तिब्बत से संलग्न भाग में जिन भोटिया बोलियों
का व्यवहार होता है, वे तिब्बत-वर्मी भाषा-परिवार से सम्बंधित हैं। मुन्श्यारी की बोली तिब्बती,
गढ़वाली और कुमाउनी का मिश्रित रूप है। पिथौरागढ़ जिले के डीडीहाट तथा धारचूला में आदिम
सादगी का नमूना प्रस्तुत करने वाली राजी जनजाति के कुछ गाँव हैं।

इन गावों में रहने वालों को बनरावत भी कहा जाता है। इनकी भाषा कुमाउनी से सर्वथा भिन्न है।
कहा जाता है कि राजी बोली आग्नेय परिवार की मुण्डा वर्ग से सम्बंधित है। तिब्बत, नेपाल और
कुमाऊँ क्षेत्रों पुराना सम्पर्क होने के कारण राजी भाषा में तिब्बती, नेपाली और कुमाउनी शब्दों का
भी व्यवहार मिलता है।

नैनीताल जिले के दक्षिणी मैदानी भागों में थारू और बोक्सा जनजातियाँ अत्यन्त प्राचीन काल से
रहती आई हैं। कुमाऊं के पर्वतीय क्षेत्रों से कई कुमाउनी भी भाबर-तराई में स्थायी रूप से बस गए
हैं। सेवानिवृत्त फौजी, बंगाली, पंजाबी इत्यादि नवागत वर्ग के लोग भी तराई में बस गए हैं। नैनीताल
जिले के भाबर-तराई भू-भाग में बसे वर्तमान इक्के-दुक्के परिवार अपवाद स्वरूप कुमाउनी का व्यवहार
करते हैं, जबकि शेष जनसंख्या द्वारा अपनी मातृभाषा/बोली से प्रभावित हिन्दी का प्रयोग होता है।

लोकभाषा

 

lokbhasha

 

कुमाउनी समाज की पृथकता तो इसी बात से उजागर हो जाती है कि उसमें
एक विशिष्ट भाषा मूल के लोग हैं। भाषा केवल अर्थ संप्रेषण के सामाजिक
उद्देश्यों की पूर्ति ही नहीं करती, वरन् अपने वक्ताओं की सांस्कृतिक विरासत
को भी सुरक्षित रखती है। एक ओर जहां वह निजी मानसिक अवस्थाओं की
अभिव्यक्ति का सक्षम साधन है, तो वहीं दूसरी ओर वह अपने वक्ता समाज को
अस्मिता प्रदान करने वाला सहज आधार भी है।

इतिहास इस बात का तो गवाह है कि कुमाऊं में समय समय पर विविध भाषा
भाषियों का राज रहा, लेकिन एक कटुसत्य यह भी है कि कोई शासन तंत्र
अपनी प्रजा को नई भाषा तो सिखा सकता है, पर उससे उसकी लोकभाषा नहीं
छीन सकता। लोकभाषाएं सामान्यत: आसानी से लुप्त नहीं होतीं, क्योंकि उनकी
अपनी जड़ें होती हैं, अपना एक ढांचा होता है

कालान्तर

kalantar

जब एक भाषा परिवार के व्यक्ति (पर्वत, नदी, वन आदि भौगोलिक कारणों से) अलग अलग रहने लगते हैं

और लम्बे अरसे तक उनका परस्पर मिलन नहीं हो पाता है, तो उनकी भाषा में अन्तर आने लगता हैं,

जो कालान्तर में विशिष्ट हो जाता है। उच्चारण तथा संरचना की दृष्टि से कुमाउनी के अन्तर्गत

इतनी अधिक बोलियों के अस्तित्व में आने का एक कारण यह भी माना जाता है कि

भौगोलिक दृष्टि से कुमाऊँ का अधिकांश क्षेत्र पहाड़ी और ऊबड. खाबड. है।

भाषिक संरचना तथा उच्चारण की दृष्टि से कुमाऊँ में अनेक बोलियाँ अस्तित्व में हैं।

भौगोलिक दृष्टि से भी पर्वतीय और उबड़ खाबड़ क्षेत्र में जैसे-जैसे दूरी बढ़ती जाती है,

बोलियों का अन्तर भी स्पष्ट होने लगता है। उदाहरण के लिए अल्मोड़ा की खसपर्जिया

और पिथौरागढ़ की सोर्याली का अन्तर देखा जा सकता है।

कुमाउनी भाषा क्षेत्र को प्रमुखत: दो भागो में विभाजित किया जाता है – पूर्वी और पश्चिमी ।

यह भी माना जाता है कि कुमाऊँ के पूर्वी क्षेत्र में पैशाची अपभ्रंश बोलने वाले

तथा पश्चिमी क्षेत्र में शौरसेनी अपभ्रंश बोलने वाले आकर बसे थे ।

यही कारण है कि पूर्वी कुमाऊं की बोलियों में पैशाची तथा पश्चिमी कुमाऊं की बोलियों पर

शौरसेनी का प्रभाव परिलक्षित होता है। इन दोनों उपभाषाओं के अन्तर्गत दस बोलियां मानी जाती हैं ।

कुमाउनी 

 kumauni

भिन्नता – किसी पहाड. के इस तरफ और उस तरफ के ग्राम वासियों

या किसी नदी के इस पार और उस पार के निवासियों के बीच

सम्पर्क न हो पाने से भी बोलियों में अन्तर पनपता रहता है।

यदि अल्मोडा और पिथौरागढ. की तरह बीच में अनेक पहाड./नदियाँ हों,

तो दोनों स्थानों की बोलियों में पाई जानेवाली भिन्नता आश्चर्यजनक नहीं।

 

अंतर – 1900 ई० में रायबहादुर श्री गंगादत्त उप्रेती ने कुमाऊँ में प्रचलित

अधिकांश बोलियों के उदाहरणों की तुलना करके यह निष्कर्ष प्राप्त किया था

कि इन बोलियों में न केवल स्थानीय कारणों से वरन् जातीय तथा सामाजिक स्तरीय कारणों से भी अन्तर है।

जार्ज गियर्सन ने (भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण) में कुमाउनी के इतिहास तथा बोलियों पर सोदाहरण प्रकाश डाला है।

 

कुमाउनी – पूर्व में नेपाल, पश्चिचम में गढ.वाल, उत्तर में तिब्बत ओर दक्षिण में तराई भाबर

के उपजाऊ मैदानों के मध्य अवस्थित कुमाऊं के इतिहास को पलटने से ज्ञात होता है कि

इस भू भाग में किरात, मंगोल, खस , सूर्यवंशी कत्यूरी, चन्द्रवंशी चन्द, गोरखा ओर अंग्रेज आदि रहे।

इतिहास गवाह है कि राजनीतिक उथल- पुथल के कारण होने वाले

सांस्कृतिक एवं सामाजिक सम्पर्कों से भाषा भी प्रभावित होती हैं।

 

बोली और भाषा

boliboli

 बोली –

बोली किसी भाषा का एक ऐसा विशिष्ट रूप होता हैं, जो अपनी भाषा के एक निश्चित भू भाग में व्यवहृत होता है।

उच्चारण, व्याकरण या मुहावरों की दृष्टि से अपनी भाषा से आंशिक भिन्नता रखने के कारण बोली का स्वतंत्र रूप प्रकट होता है,

लेकिन यह अन्तर भाषा या उसकी अन्य बोलियों से इतना अधिक भी नहींं होता कि उसे अलग भाषा माना जा सके।

भाषा –

कोई बोली तभी तक बोली मानी जाती है, जब तक वह सामान्य जन की बोलचाल का माध्यम होने के साथ-साथ

अन्य सार्वजनिक कार्यों का माध्यम नहीं बनती। जब सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक या राजनीतिक कारणों से

कोई बोली अपने विस्तृत भू भाग के साहित्य एवम् शिक्षा जगत के साथ.-साथ शासन के क्षेत्र में भी प्रतिष्ठित हो जाती है,

तो वह भाषा का दर्जा पाती है।

उपादेयता –

बोली जीवन का अंग होती है।

बोली परिवेश से अर्जित की जाती है।

बोली आत्मीयता की द्योतक होती है।

बोली व्यक्ति के समाजीकरण का माध्यम होती है।

बोली का प्रयोग अनौपचारिक सन्दर्भों में समाज का प्रत्येक व्यक्ति करता है।

बोली के माध्यम से विभिन्न वर्गों के लोग परस्पर विचार विनिमय कर लेते हैं।

बोली भाषासमाज को जोड़ती है ।

बोली से ही भाषा जन्म लेती है।

भाषा

pahadi

पहाड़ी भाषा

‘भारत का भाषा सर्वेक्षण’ के लेखक ग्रियर्सन ने

भारतीय आर्य भाषाओँ को तीन उपशाखाओं में विभाजित किया –

बहिरंग, अन्तरंग और मध्यवर्ती. इन तीनों उपशाखाओं में

६ भाषा समुदायों तथा १७ भाषाओँ की गणना की गयी है.

इस वर्गीकरण में कुमाउनी/गढ़वाली को अर्थात मध्य पहाड़ी को

मध्यवर्ती उपशाखा के पहाड़ी भाषा समुदाय में स्थान दिया गया है.

पहाड़ी भाषा समुदाय हिमाचल प्रदेश के भद्रवाह के उत्तर-पश्चिम

से लेकर नेपाल के पूर्वी भाग तक विस्तृत है.

इसके तीन प्रमुख रूप हैं – पूर्वी, पश्चिमी व मध्य.

पूर्वी पहाड़ी नेपाल में बोली जाती है.

पश्चिमी पहाड़ी हिमाचल प्रदेश में प्रयुक्त होती है

और मध्य पहाड़ी उत्तराखंड में व्यवहृत होती है.

मध्य पहाड़ी के अंतर्गत गढ़वाल में गढ़वाली

तथा कुमाऊँ में कुमाउनी का प्रचलन है.