विशेष: साम्प्रदायिकतावाद:
सांप्रदायिकतावाद में समाहित पाशविकता के कारण कभी कभी हमारे देश में ऐसी घटनाएं घट जाती हैं, जिन पर किसी भी सभ्यता का सर लज्जा से झुक जाना चाहिए। अतः सांप्रदायिकता को राष्ट्रीयता के नाम पर कलंक कहा जाना अनुपयुक्त नहीं। यह कलंक जितना संकीर्ण है, उतना ही हिंसात्मक भी है; जो कभी लांछित करता है तो कभी दिग्भ्रमित कर देता है।
‘‘मुल्क का मौसम बदलता रहता है। यों अपने देश का एक अन्य खुशनुमा मौसम भी है। यह हमारे प्रजातंत्र की पहचान है। किसी राज्य में चुनाव होते हैं, तो कहीं उपचुनाव। पूरे वर्ष , कहीं न कहीं चुनावी मौसम चलता ही रहता है। जो दल या नेता जनता को भाषण, वादे, प्रलोभन, आश्वासन आदि से ठगने में जितना सफल है, वह इस प्रजातंत्र के उत्सव में उतना ही कामयाब है। बात सब जनहित की करते हैं, जोर अपनी जात पर रहता है।’’ 1
‘‘हर दल की मान्यता है कि उसका विरोधी सांप्रदायिक है। दलित उत्पीड़न का सबसे अधिक शोर वह मचाते है, जिन्होंने उनके सुधार के लिए अपने शासन काल में; उस पर आज भी प्रश्नचिह्न लगा हुआ है। उनकी परंपरा राजसी है, नजरिया सामन्ती। परिवार के बाहर का कोई प्रधानमंत्री उन्हें बर्दाश्त नहीं है। नही ंतो स्वर्गीय राव के आर्थिक सुधारों को भुलाने के लिए सक्रिय प्रयास क्यों करते ?’’ 2
साम्प्रदायिकतावाद में धार्मिक रूढ़िवाद को कारण मानने वालों को यह जान लेना चाहिए कि धर्म जितना रूढ़ होता है, उतना ही राजनीति से दूर होता है। संाप्रदायिकतावाद को विदेशियों की चाल बताने वालों को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती, अर्थात् संाप्रदायिकतावाद को रूढ़िवादिता या विदेशी प्रयासों से जोड़ने वाले राजनीति की आड़ में वास्तविकता को छिपाना चाहते हैं।
आज आवश्यकता इस बात की है कि शीघ््राातिशीघ््रा ऐसे कदम उठाए जाएं, जो वोटों की रातनीति में पनप रही संाप्रदायिकता को नेस्तनाबूद कर सकें। मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा, अकालीदल जैसी संाप्रदायिक संस्थाओं को भी अपनी राजनीतिक पहचान बनाने की बजाय सामाजिक तथा सांस्कृतिक उत्थान में जुटना चाहिए। देश के समस्त संाप्रदायिक दलों के लोगों को राष्ट्र को अपने दल से बड़ा मानकर संाप्रदायिकतावाद को राजनीतिक दुरुपयोग से बचाने का संकल्प लेना चाहिए।
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1 और 2 – ‘साहित्य अमृत’ नामक मासिक पत्रिका के नवंबर 2018 के पृष्ठ 48 में प्रकाशित – गोपाल चतुर्वेदी के लेख ‘मौसम के रंग’ से उद्धृत।