लोकसाहित्य: लोकोक्तियां:
लोक साहित्य का प्रणयन वस्तुतः लोक जीवन द्वारा होता है, अतः इसमें लोक जीवन की ही अभिव्यक्ति होती है और यह लोक जीवन में ही संचरण करता है। जिस तरह लोकगीत जीवन की अनुभूतियों से जन्म लेते हैं, उसी तरह लोकोक्तियां भी जीवन के अनुभवों की दुहिताएं होती हैं।
संक्षिप्त, रोचक एवं सारगर्भित होने के कारण लोकोक्तियां आसानी से लोगों की जुबान पर चढ़ जाती हैं और प्रसंगानुसार प्रयोग में लाई जाती हैं। लोकगीतों की तरह लोकोक्तियों को भी नई पीढ़ियां पुरानी पीढ़ियों से भाषिक परंपरा के रूप में प्राप्त करती हैं और प्रयोग में लाकर आगे बढ़ा देती हैं। उक्ति होने के कारण लोकोक्ति का न तो आकार निष्चित है और न ही स्वरूप, तथापि इनका प्रयोग करते समय वक्ता किसी षब्द विषेष पर जोर अवष्य देता है।
स्वतःस्फूर्त होने के कारण लोकोक्ति के लिए वाक्य संरचना अथवा छन्दानुषासन के नियमों की कोई बाध्यता नहीं होती, फिर भी कथन को विषिष्ट बनाने के लिए यदा-कदा आषुकवि जैसी तुकबन्दी का प्रयोग भी परिलक्षित होता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि लोकोक्तियां गेय नहीं होतीं, पर तुकांत होने के कारण क्षणिकाओं के समान प्रतीत होती हैं, जिनके कुछ अति प्रचलित उदाहरण आगे प्रस्तुत किए जा रहे हैं –