विशेष: भारत:
भारत एक विशाल लोकतांत्रिक राष्ट्र है। भारतीय संविधान का उद्देश्य इसे एक ऐसा प्रमुख गणराज्य बनाना है, जिसमें समस्त नागरिकों को उनकी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक स्वतंत्रता के साथ विचारों के अभिव्यक्तीकरण का अधिकार हो और उनके बीच किसी प्रकार का भेदभाव न किया जाए। किसी भी व्यक्ति के साथ रंग, धर्म, जाति अथवा लिंग के आधार पर अन्याय न हो तथा उसे केवल देश का सम्मानित मतदाता ही नहीं, वरन् नियमानुसार किसी भी पद के योग्य भी माना जाए।
यह सत्य निर्विवाद है कि राजनीतिक दृष्टि से भारत स्वतंत्र है, पर एक राष्ट्र को जिन निषेधात्मक भावनाओं से मुक्ति की आवश्यकता होती है; वे भावनाएं अभी तक हमारी मानसिकता में जीवित हैं और देशवासियों को विभिन्न संप्रदायों में विभाजित किए हुए है। इसमें कोई संदेह नहीं कि सुशिक्षित भारतीय भाईचारे और शान्तिसम्पन्न एकता का जीवन व्यतीत करना चाहते हैं, लेकिन इस बात में भी कोई संदेह नहीं कि कुछ लोग अपने क्षुद्र स्वार्थों की पूर्ति के लिए सांप्रदायिकता की ही आड़ लेते हैं।
यह सांप्रदायिकता भारत की राजनीति के लिए एक ऐसा अभिशाप बन चुकी है, जिसने देश के प्रजातांत्रिक स्वरूप को बुरी तरह दूषित किया है। फरवरी 1987 के अंत में तत्कालीन राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने कहा था कि – ‘हमारी राष्ट्रीयता, धर्मनिरपेक्षता, प्रजातांत्रिक प्रणाली और समाजवाद के मूल सिद्धांतों को बाहरी तत्वों की सहायता से सांप्रदायिक और रूढ़िवादी दल चुनौती दे रहे हैं। एकता और विविधता की हमारी बहुमूल्य सम्पत्ति की रक्षा इन सभी विभाजक दलों कामना करके ही की जा सकती है।’
संप्रदायिकतावाद आज ही नहीं भारत के पुराने दिनों से प्रचलित एवं पोषित राजनीतिक पद्धति है। विदेशी शासकों ने इसी के आधार पर ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई। आजादी के बाद भी सरकार द्वारा तुष्टीकरण की जो नीतियां बनाई गईं, उनके मूल में भी सांप्रदायिक अलगाव की भावना दृष्टिगोचर होती है। पाकिस्तान के अलग होने के बाद भी तत्कालीन नेताओं ने इस प्रकरण में उसी प्रकार के फायदे ढूंढने शुरू किए, जो पहले कभी विदेशी शासकों को नजर आए थे। क्रमशः