लोकभाषा: उच्चारण:
किसी समाज के लोगों द्वारा पारस्परिक भाव विनिमय हेतु प्रयुक्त उच्चारण अवयवों के निश्चित प्रयत्नों से उत्पन्न सार्थक ध्वनि प्रतीकों की व्यवस्था को भाषा कहा जाता है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी के उच्चारण अवयवों के ढलान पर नदी की तरह प्रवाहित होती हैऋ अतः यह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ती है, त्यों-त्यों इसके प्रवाह में सरलता और सहजता बढ़ जाती है। इस परिवर्तन को विकार कहा जाए या विकास, पर यह भाषा की प्रकृति है। वह जिस समाज से सम्बन्ध रखती है, उसमें उत्पन्न, पोषित, परिवर्धित या उनसे सम्बद्ध लोग उसे सहज ही सीख लेतेे हैं।
यदि किसी समाज के नवजात शिशु को किसी अन्य भाषा भाषी समाज में रख दिया जाए तो अपनी अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने के लिए वह वहीं की भाषा सीख लेगा और अपने मूल समाज में लौटने पर अपने लोगों से बोलने या उनकी बात समझने के लिए उसे पुनः उनकी भाषा सीखनी पड़ेगी। इससे स्पष्ट है कि भाषा संस्कार की अपेक्षा वातावरण के अधिक निकट होती है। संभवतः इसीलिए उसे सामाजिक सम्पत्ति भी कहा जाता है।
भाषिक अध्ययन की प्रचलित परम्परा में बोली को अभिव्यक्ति की संरचना मानकर उसके स्वनिमों, रूपिमों, शब्दों और वाक्यों पर विचार किया जाता है ; जो उसे सीखने समझने की दृष्टि से उपयोगी है। बोली की आन्तरिक व्यवस्था को ध्यान में रखते हुए उसके भाषिक तत्वों की विवेचना से उसकी प्रयोगात्मक प्रवृत्तियाँ स्पष्ट होती हैं, जिनसे बोली की संस्कृति का परिचय प्राप्त होता है। क्रमशः