विशेष: संभावना:
अब वह समय आ गया है कि जब जीवन के हर क्षेत्र में समान माने जाने वाले नर नारी अपने समाज के समस्त दुखद आडंबरों का मिलकर और खुलकर विरोध करें। आत्मविश्वास से भरपूर जागरूक युवक दहेज लेने की बात करना छोड़ दें और शिक्षित युवतियां विशेष साहस का प्रदर्शन करते हुए दहेज लोभियों को ठुकराना शुरू कर दें। जो युवक और युवतियां ऐसा करने की हिम्मत दिखाएं, समाज न केवल उन्हें प्रोत्साहित करे वरन् अपने आश्रितों को भी एतदर्थ प्रेरित करे।
सामाजिक आडंबरों से छुटकारा पाने के लिए सरल विवाह विधियों का प्रचलन प्रारंभ हो, जिनमें अनावश्यक तथा दिखावटी खर्चों से बचा जा सके। अदालत में होने वाले प्रेम विवाह वाले दम्पतियों को भी अन्य विधियों से विवाहित लोगों के समान मान्यता दी जाए। भलीभांति पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़े युवक युवतियां अंतर्जातीय विवाह करने लगें तो समाज राष्ट्रीयता एवं मनुष्यता की दृष्टि से उन्हें भी समुचित सम्मान प्रदान करे।
सुप्रसिद्ध साहित्यकार नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के अनुसार ‘मनुष्यता इसीलिए प्रणम्य है, वह इसीलिए देवत्व को पराजित करती है; क्योंकि देवताओं के स्वर्ग जैसी एकरसता मनुष्य ने धरती पर नहीं रहने दी। स्वर्ग जैसी एकरसता और मोक्ष जैसा निर्जन मौन सच्चा मनुष्य कभी नहीं चाहेगा, क्योंकि स्वर्ग और मोक्ष की भूमि सुजन के लिए बंजर है। इसलिए यदि मौलिकता भ्रम भी है तो ऐसा भ्रम इस सृष्टि का सौभाग्य है।’ 1
कुल मिलाकर इस अभिशाप को मिटाने के लिए सामाजिक चेतना में आमूल चूल परिवर्तन की आवश्यकता है। यही परिवर्तन दहेज की समस्या को मिटाकर भारतीय नारी को उस आदर्श स्थिति में प्रतिष्ठित कर सकेगा, जिसकी वह प्राचीन काल में अधिकारिणी थी। ऐसे अभिनव विचार किसी एक की सोच को बेचैन न करते हुए भी समाज की चेतना को झकझोरते रहे हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि शिक्षा, प्रशासन, व्यापार और उद्योग के क्षेत्रों में आधुनिक युगीन नारी नर के कदमों के साथ अपने कदम मिलाते हुए प्रगति की ओर अग्रसर है, लेकिन यह बात अभी एक विशिष्ट वर्ग तक ही सीमित है। यद्यपि तथाकथित विकास के बावजूद दूरस्थ कस्बों और ग्रामों की नारी की स्थिति अभी विचारणीय बनी हुई है, तथापि भारतीय संविधान में उल्लिखित नारी की स्थिति और अधिकारों के आलोक में एक ऐसी दिशा की संभावना स्पष्ट है; जहां भारतीय नारी अपना अपेक्षित मंतव्य अवश्य प्राप्त कर लेगी।
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1 ‘साहित्य अमृत’ नामक मासिक पत्रिका के नवंबर 2018 के पृष्ठ 36 में प्रकाशित – नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के लेख ‘ मनुष्य नहीं हुआ पुराना’ से उद्धृत।