लोकगीत : अंतर :
कुमाऊं की लोक गाथाओं में कवि की कल्पना की उड़ान और अतिशयोक्ति का बोलबाला
है पर इनके द्वारा कुछ ऐसे तथ्य भी सामने आते हैं; जो लिखित इतिहास में उपलब्ध नहीं
होते।इनके वर्णनों की नाटकीयता अगर श्रोताओं को मंत्रमुग्ध करती है तो इनके गायन की
शैली उन्हेंप्रभावित भी करती है। इनमें वर्णित पुराने गढ़ाें और हाटों के नाम अपने अतीत के
प्रति जिज्ञासाही नहीं जगाते, बल्कि इनके पात्रों के आचरण तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक
जीवन कीझलक भी प्रस्तुत करते हैं।
एक बात और, कुमाऊं में कहीं हिमाच्छादित पर्वतश्रंखलाएं हैं तो कहीं शस्य-श्यामला
उपत्यकाएं भी हैं। कहीं पहाड़ाें के इधर-उधर फैले घने जंगलों की भरमार है तो कहीं
नदियों के आर-पार फैले समतल खेतों की बहार है। इस तरह की विषम परिस्थितियों
का प्रभाव सीढ़ीनुमा खेतों के आस-पास दूर-दूर बसे गांवों की जिन्दगी पर पडऩा ही था।
आवागमन की कठिनाइयों के कारण विभिन्न घाटियों के निवासियों के बीच संपर्क का
अभाव रहा, जिससे एक नदी या एक पर्वत के इधर-उधर रहने वालों के रहन-सहन
तथा बोलचाल में अंतर आ गया।
आज कुमाउनी भाषा की तीन उपभाषाएं मानी जा रही हैं – पूर्वी, मध्यवर्ती तथा पश्चिमी।
पूर्वी के अंतर्गत कुमैयां, सोर्याली, सीराली व अस्कोटी; मध्यवर्ती के अंतर्गत खसपर्जिया
औरचौगर्खिया तथा पश्चिमी के अंतर्गत गंगोली, दनपुरिया, पछाईं व रौचौभैंसी नामक बोलियां
अस्तित्वमें आई हैं।स्वरूप की दृष्टि से जिस तरह अलग-अलग स्थानों पर बोली का स्वरूप
बदला हुआमिलता है, उसी तरह जगह-जगह पर लोकगीतों की धुनों में भी परिवर्तन परिलक्षित
होता है।प्रसिद्ध लोकगाथा मालूसाही बारामंडल की ओर जिस धुन में गाई जाती है,
वह राग दुर्गा के निकट है। कौसानी बागेश्वर की ओर प्रचलित इसके रूपांतरों में
राग सोहनी की विशेषताएं लक्षित होती हैं। — ( डॉ० त्रिलोचन पाण्डे : कुमाउनी भाषा
और उसका साहित्य : पृष्ठ 229)