लोकभाषा: साहित्य भाषा:

sahityaलोकभाषा: साहित्य भाषा:

केन्द्र की या प्राचीन राजधानी के निकट की भाषा राजभाषा या साहित्य भाषा बनने का गौरव प्राप्त करती है। इसी परम्परा में मध्य देश की संस्कृत, ब्रजभाषा, अवधी, कौरवी ;खड़ी बोलीद्ध आदि ने साहित्य भाषा बनने का गौरव प्राप्त किया है। इसी कारण गियर्सन ने कुर्मांचली भाषा पर कार्य किया तो कुमैयाँ को मानकीकरण की दृष्टि से अधिक उपयुक्त मानते हुए खसपर्जिया को साहित्यक भाषा के रूप में स्वीकार किया। राजधानी के चम्पावत से अल्मोड़ा आ जाने पर राजा की खासप्रजा की भाषा सामान्य जन के लिए आदर्श हो गई। सुदूरवर्ती ग्रामीण अंचलों का भी किसी न किसी रूप में सम्पर्क बना ही रहा, पफलतः यह सबके लिए सुबोध थी। यही कारण था कि कुमैयाँ को सारी विशेषताओं के अनन्तर भी परिनिष्ठित साहित्य भाषा बनने का गौरव नहीं मिल पाया।

कुमैयाँ का स्वनिमिक एवं रूपिमिक अनुशीलन करने के उपरान्त ज्ञात होता है कि न केवल, उच्चारण की दृष्टि से वरन् संरचनात्मक दृष्टि से भी कुमैयाँ तथा कुमाउनी की अन्य बोलियोें के बीच ऐसी विभाजक रेखायें हैं, जो अत्यन्त सूक्ष्म होते हुए भी सदियों से उसकी विशिष्टता को अक्षुण्ण बनाये हुए हैं। उसके ठेठ स्वरूप का माधुर्य उसे पूर्वी कुमाउनी उपभाषा ;की अन्य बोलियोंद्ध से भी पृथक् करता है। सम्प्रति कुमाऊँ मण्डल के नवसृजित जनपद चम्पावत के घरों के अलावा, यदि वक्ता और श्रोता में कोई परदेसी न हो तो सामान्यतः बाजारों में भी कुमैयाँ का धड़ल्ले के साथ उपयोग किया जाता है।

‘बोली’ किसी भाषा के ऐसे सीमित क्षेत्रीय रूप को कहते हैं, जो ध्वनि, रूप, वाक्य गठन, अर्थ, शब्द समूह तथा मुहावरे की दृष्टि से उस भाषा के परिनिष्ठित तथा अन्य क्षेत्रीय रूप से भिन्न होता है, किन्तु इतना भिन्न नहीं कि अन्य रूपों के बोलने वाले उसे समझ न सकें; साथ ही जिसके अपने क्षेत्र में कहीं भी बोलने वालों के उच्चारण, रूप-रचना, वाक्य गठन, अर्थ, शब्द समूह तथा मुहावरों आदि में कोई बहुत स्पष्ट और महत्वपूर्ण भिन्नता नहीं होती। क्रमशः

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Published by

Dr. Harishchandra Pathak

Retired Hindi Professor / Researcher / Author / Writer / Lyricist

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