विशेष: स्वतंत्रता के पश्चात्:
देश की स्वतंत्रता के पश्चात् भारतीय संविधान में नारी के उत्थान के लिए कई प्रकार के कार्यक्रम तय किए गए। उन्हें शिक्षित बनाने के लिए स्कूलों ओर विद्यालयों की स्थापना की गई। मगर विडंबना यह कि शिक्षित कन्याओं के लिए उनसे अधिक शिक्षित वरों की मांग बढ़ने लगी, तो फिर से परंपरागत दहेज की समस्या की प्रगति के नए अवसर पनपने लगे। इन अवसरों ने आधुनिकता की आड़ में भौतिक सुख – सुविधाओं के सामान के लेन देन का ऐसा व्यापार प्रारंभ किया, जो श्खिित नववधुओं के लिए प्राणलेवा साबित हुआ।
स्वतंत्र भारत में दहेज उन्मूलन की बात पर काफी जोर दिया गया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के जमाने में सरकार द्वारा इस विषय में रुचि ली गई और कई दहेज विरोधी नियम भी बनाए गए। दहेज विषयक मामलों पर विचार करने के लिए पृथक् न्यायालयों की व्यवस्था की गई। अनेक नवगठित सामाजिक संगठनों और महिला मंचों ने भी कंधे से कंधा मिलाकर इस समस्या को सुलझाने के प्रयास प्रारंभ किए, लेकिन इस बुरे रोग का सही उपचार न हो सका।
कारण यह है कि वर का पिता यदि दहेज न लेने को राजी भी हो जाए तो वर की माता राजी नहीं होती। वह अपने अड़ोस पड़ोस तथा सगे संबंधियों को दहेज न लेने का आदर्श प्रदर्शित करने की अपेक्षा अधिकाधिक दहेज दिखाने में अपनी ज्यादा शान समझती हैं। व्यावहारिक दृष्टि से इसे नवदंपति की नई गृहस्थी जमाने के लिए आवश्यक सामान का अथवा वर की पढ़ाई लिखाई पर हुए कुल व्यय का भुगतान भी माना जाने लगा।
आजकल विवाह दो परिवारों का संबंध सूचक न रहकर ताम झाम के प्रदर्शन का आयोजन मात्र बनकर रह गया है। इस प्रदर्शन का बोझ वर और कन्या पक्षों को समान रूप से उठाना पड़ता है। बढ़ती हुई मंहगाई के साथ यह बोझ असह्य होता चला जा रहा है। यद्यपि लोग इस प्रथा के साथ साथ बारात की औपचारिकता तथा सामाजिक रीतियों या जातिगत बंधनों से मुक्ति के लिए छटपटाने लगे हैं, तथापि सच्चे साहस के अभाव की वजह से वे इन प्रपंचों का खुलकर विरोध नहीं कर पाते हैं। यह मनःस्थिति समाज में नारी की स्थिति को और भी डांवाडोल बनाए हुए है। क्रमशः