लोकभाषा: बोलियां:
एक भाषा की कई बोलियाँ होती है। कारण, भाषा का क्षेत्र विस्तृत होता है और इस क्षेत्र के विस्तार के कारण विभिन्न उपक्षेत्रों में पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण तथा मध्य उपक्षेत्रों में एक ही भाषा के बोलचाल के अनेक रूप हो जाते हैं, क्योंकि पूर्वी उपक्षेत्रों के व्यक्ति परिश्चम वालों से अधिक सम्पर्क नहीं कर पाते हैं तथा उत्तर क्षेत्र वाले भी दक्षिण क्षेत्र वालों से अधिक नहीं मिल पाते हैं जिससे वे एक ही भाषा की बोलियाँ होने पर भी परस्पर भिन्न – भिन्न होती हैं। परस्पर भिन्न – भिन्न होते हुए भी वे एक ही भाषा के अधीन रहती हैं।
प्रत्येक बोली अपनी प्रवृत्ति या गठन की विशेषावस्था वाले निजी परिवेश में पुष्पित पल्लवित होती है। यही कारण है कि अपभ्रंश काल के बाद देश के विभिन्न क्षेत्रों के विविध परिवेशों में अलग-अलग बोलियों के अंकुर फूले-फले, जिन्होंने धीरे-धीरे भाषाओं का रूप ले लिया। कुमाउनी, हिन्दी भाषा की पहाड़ी उपभाषा की एक बोली मानी जाती रही है, पर अब साहित्य सृजन, बोलने वालों की संख्या एवं क्षेत्रीय विस्तार के कारण कुमाउनी ने भाषा का रूप ले लिया है। जिस तरह कुमाउनी हिन्दी की बोली के रूप में हिन्दी के साथ-साथ विकसित होती रही उसी तरह कुमाउनी की अन्य बोलियों के साथ-साथ बोली के रूप में कुमैयाँ भी समानान्तर रूप से विकसित होती रही है।
एक ही माता का दुग्धपान करने वाले सहोदर शावकों की भाँति कुमाउनी की बोलियों की विशेषतायें आकृतिमूलक साम्य के कारण विकासकाल में नजर नहीं आ पाई, पर जिस प्रकार बच्चों के बड़े होने पर उनके हाव-भाव अलग दिखाई पड़ने लगते हैं, उनकी रुचियों के भेद प्रकट होने लगते हैं, उसी प्रकार कालान्तर में कुमाउनी की पूर्वी तथा पश्चिमी उपभाषाओं तथा उनके उन्तर्गत आने वाली अलग-अलग बोलियाँ भी अपनी निजी विशेषताओं के कारण स्वतंत्र रूप में पहचानी जाने लगीं। इन बोलियों में कुमाऊँ की मूल राजधानी की बोली होने के बावजूद कुमैयाँ को वह महत्व नहीं मिल पाया, जिसकी वह हकदार थी। क्रमशः