विशेष: बदलाव:
भारत में विदेशी आक्रमणकारियों के आगमन तथा उनकी सत्ता की स्थापना के साथ साथ भारतीय नारी की स्थिति में बदलाव दिखाई देता है। विदेशियों के अत्याचारों व कुदृष्टि से बचने के लिए वह कभी तलवार लेकर समर में कूद पड़ी, कभी सिंधौरा लेकर जौहर की ज्वालाओं में समा गई; लेकिन हर नारी दुर्गावती या पद्मावती नहीं होती।
सामान्य नारी के लिए पदा प्रथा प्रारंभ हुई, बाल विवाह की परंपरा पड़ी ।इन परिपाटियों ने सामाजिक दृष्टि से भले ही नारी की सुरक्षा की हो, लेकिन शिक्षा से पूरी तरह वंचित कर दिया। अशिक्षित होने के कारण वह अपने पति की सहधर्मिणी या सहभागिनी नहीं बन सकी और कालांतर में उसकी स्थिति इतनी खराब हो गई कि राष्ट्रकवि मैथिलीशरण की लेखनीतक भाव विह्वल हो उठी –
अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी
आंचल में है दूध और आंखों में पानी
ऐसी भावनाओं से अनुप्रेरित होकर आधुनिक युग में राजा राममोहन राय और स्वामी दयानंद सरस्वती जैसे महान विचारकों तथा समाज सुधारकों भारतीय नारी की स्थिति सम्हालने का बीड़ा उठाया। सभी लोगों ने उनका समर्थन किया और नारी उत्थान के लिए किए जाने वाले प्रयास सफल होने लगे। इन सफलताओं के बावजूद सती प्रथा और दहेज प्रथा का अस्तित्व काफी हद तक बरकरार रहा। इनमें से सती प्रथा धीरे धीरे लुप्त होती चली गई, पर दहेज प्रथा का रूप अभी भी विकराल बना हुआ है।
यू ंतो यह प्रथा हमारे देश में वैदिक तथा पौराणिक काल से ही चली आ रही है, लेकिन यह कन्या के पिता द्वारा वर को भेंट स्वरूप प्रदान किया जाता था। सामंतवादी युग में राजा महाराजा अपनी प्रतिष्ठा के प्रदर्शन के लिए दहेज के रूप में हाथी घोड़ों और वस्त्राभूषणों के ढेर सहित दास दासियां भी देते रहे।
आधुनिक युग के प्रारंभ में तो यह परंपरा कन्यापक्ष की सामथ्र्य की सीमाओं में पोषित हुई, पर कालांतर में वरपक्ष की मांग के रूप में प्रकट होकर इसने सौदेबाजी की हद छू ली। इस पर गांधी जी ने कहा था कि – ‘हमें नीचे गिराने वाली दहेज प्रथा की निंदा करने वाला जोरदार लोकमत जागृत करना चाहिए और जो युवक इस तरह के पाप के पैसे से अपने हाथ गंदे करें, उन्हें समाज से बाहर निकाल देना चाहिए।’ क्रमशःः