लोकभाषा : कुमैयां :
चम्पावत की बोली ‘कुमैयां’ के साथ वहाँ के व्यक्ति और समाज को समझने के लिए जो इतिहास उपलब्ध है, उसके अनुसार कुमाऊँ की राजधानी के पक्ष में जो सभ्यता पनपी, उसमें एक ओर भारतीय परम्पराओं का सौन्दर्य प्रकाशमान था और दूसरी ओर पर्वतीय विशेषताओं का आकर्षण विद्यमान था। आज भी इस क्षेत्र में कहीं कत्यूरी शासनकाल की सांस्कृतिक विरासत की अनेक प्रकार से जगह-जगह छोड़ी गई छाप दिखाई देती है तो कहीं चन्द शासनकाल की विकासोन्मुख सभ्यता के अवशिष्ट किन्तु गहन चिह्न दृष्टिगोचर होते हैं। इसी प्रकार कुमैयाँ पर एक ओर आग्नेय दरद- खस का प्रभाव प्रतीत होता है तो दूसरी ओर उसमें अर्ध मागधी का पुट भी नजर आता है, तथापि रूपात्मक गठन की दृष्टि से वह शौरसैनी अपभं्रश के अधिक निकट है।
यह तो इतिहास सम्मत है कि चन्दकालीन कुमाऊँ की मूल राजधानी चम्पावत ही थी। अतः उनके प्राचीनतम अभिलेख कुमैयाँ बोली में ही पाये जाते हैं। कालान्तर में राजधनी के अल्मोड़ा स्थानान्तरित होने के बाद उस तरफ के इलाके कुमाऊँ राज्य में सम्मिलित होते रहे और उन इलाकों की बोलियाँ भी कुमाउनी में शामिल होती रहीं। इन सब अलग-अलग बोलियों के बोलने वालों के बीच पर्वतीय परिस्थितियों में यातायात की तत्कालीन असुविधाओं के कारण पारस्परिक सम्पर्क भी कम ही हो पाया।
पारस्परिक सम्पर्क की सुलभता और अध्किता भाषा के निर्माण में सहायक होती है और सम्पर्क की दुर्लभता और अल्पता से बोलियों का भेद बढ़ता है। इस सम्पर्क के साधक और बाधक अनेक कारण हैं। जहाँ साधक कारण है, वहाँ स्थानीय बोलियाँ जमीं रहती हैं। यह कारण इस बात को समझने के लिए पर्याप्त है कि कुमाऊँ के मूल निवासियों की बोलचाल के माध्यम को हिन्दी की पहाड़ी उपभाषा की एक बोली के रूप में कुमाउनी अवश्य कहा जाता रहा, पर कुमाऊँ के ऊँचे-नीचे पर्वतों तथा छोटी बड़ी नदियों की प्राकृतिक सीमाओं से सुनिश्चित अलग-अलग घाटियों में रहने वालों की बोलियाँ अपने-अपने परिवेशों में अलग-अलग विकसित होती रहीं। क्रमशः