विशेष : भारतीय नारी :
मानव सृष्टि के सनातन रथ के दो पहिए हैं – एक नर और दूसरा नारी।
इनमें से किसी एक के भी अभाव में मानव जीवन आगे नहीं बढ़ सकता।
नर को परुषता का और नारी को मृदुलता का प्रतीक माना जाता है।
शिवशंकर के अर्धनारीश्वर में कठोरता और कोमलता के समन्वय के साथ
साथ यह तथ्य भी स्पष्ट हो जाता है कि ये दोनों एक दूसरे के विरोधी नहीं,
बल्कि एक दूसरे के पूरक हैं। संभवतः इसीलिए भक्ति और साहित्य में देवी
देवताओं युगल रूप में उपासना प्रारंभ हुई होगी; जैसे शिव पार्वती, विष्णु
कमला, राम सीता, राधा कृष्ण आदि।
नर और नारी के युगल स्वरूप की पूर्णता को ध्यान में रखते हुए हमारे देश
में प्राचीन काल से ही नारी को र्प्याप्त सम्मान दिया जाता रहा है। ‘यत्र नार्यस्तु
पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ जैसी उक्तियां हमारे पुरातन सभ्यता के अनुभव सम्पन्न
जीवन दर्शन की अभिव्यक्ति हैं। मां के रूप में आदर, बहन के रूप में स्नेह, पत्नी
के रूप में प्रेम और पुत्री के रूप में वत्सलता की अधिकारी नारी वास्तव में कई
प्रकार से अपनी सामाजिक भूमिका अदा करती है। वह ब्रह्मा की तरह सृजनकारी
है, तो विष्णु की तरह पालनहार भी। आवश्यकता पड़ने पर वह शिव की तरह
प्रलयंकारी भी हो जाती है।
नारी की स्थिति के संदर्भ में यह ज्ञात होता है कि वैदिक काल में वह जीवन के
प्रत्येक क्षेत्र में पुरुष की सहभागिनी रही। उसके बिना धार्मिक अनुष्ठान अपूर्ण माने
जाते थे और वह आध्यात्मिक विषयों पर शास्त्रार्थ भी कर लेती थी। रामायण –
महाभारत काल में भी नारी का स्थान महत्वपूर्ण बना रहा। सीता और अनुसूया, कुंती
और गांधरी, सावित्री और दमयंती की कथाएं आज तक यथावत् प्रेरक बनी हुई हैं।
सम्राट अशोक ने अपनी पुत्री संघमित्रा को बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए दूर दूर
तक भेजा था। मण्डन मिश्र की धर्मपत्नी भारती ने जगतगुरु शंकराचार्य के साथ
अविस्मरणीय शास्त्रार्थ किया था। नारी की इस स्थिति कां परिवर्तनशील समय ने एक
सा नहीं रहने दिया। क्रमशःः