सिनेमा : साठ के बाद :
परिवार प्रधान फिल्मों की परिपाटी में 1961 में भाभी की चूड़ियां, मेम दीदी तथा मॉडर्न गर्ल, 1962 में मेंहदी लगी मेरे हाथ, शादी तथा मैं चुप रहूंगी, 1963 में बहूरानी, घर बसा के देखो तथा सेहरा, 1964 में पूजा के फूल, मैं भी लड़की हूं तथा शगुन, 1965 में बहू बेटी, वक्त तथा खानदान, 1966 में देवर, ममता तथा दादी मां, 1967 में दस लाख, हरे कांच की चूड़ियां तथा एक फूल दो माली, 1968 में नीलकमल, दो कलियां तथा तीन बहूरानियां, 1969 में बड़ी दीदी, होली तथा वारिस, 1970 में मां का आंचल, ममता तथा गोपी आदि फिल्मों के नाम उल्लेखनीय हैं।
1971 में पूरब और पश्चिम, लाखों में एक और मैं सुंदर हूं, 1072 में पराया धन, पिया का घर और भाई हो तो ऐसा, 1973 में धुंध, 1974 में कोरा कागज, और आपकी कसम, 1975 में छोटी सी बात और चुपके चुपके, 1976 में वैराग, 1977 में परवरिश, घरौंदा और अपना खून, 1978 में पति पत्नी और वो, मैं तुलसी तेरे आंगन की, दुलहन वही जो पिया मन भाए और अंखियों के झरोखे से, 1979 में नौकर, अमर दीप और आंगन की कली, 1980 में थोड़ी सी बेवफाई, सौ दिन सास के, खूबसूरत और सुहाग आदि फिल्में पर्याप्त लोकप्रिय हुई।
1982 में प्रेम रोग व निकाह, 1983 में भावना व आदमी और औरत, 1986 में नसीब अपना अपना, 1988 में घर घर की कहानी व श्रद्धांजलि, 1992 में बेटा, 1994 में आज की औरत, 1995 में चालबाज, 1996 में बीवी नंबर वन व होगी प्यार की जीत, 1997 में विरासत व इनकाउण्टर, 1998 में चाची 420, 1999 में रामअवतार व जिस देश में गंगा रहता है, 2000 में सूर्यवंशी, जमाई राजा, किशन कन्हैया व खामोशी, 2001 में कभी खुशी कभी गम, 2002 में मेरे यार की शादी है व मुझसे दोस्ती करोगे और 2004 में बागवां आदि फिल्में बनीं।
26. 12. 2004 के राष्ट्रीय सहारा अखबार के – सण्डे उमंग – पृष्ठ 4 में चंद्रकांत शिन्दे ने लिखा कि‘नंगेपन से भरी फिल्मों के माहौल में ‘बागवां’ ने एक खुशनुमा माहौल का निर्माण किया। बूढ़े नायक नायिका की यह फिल्म दर्शकों को रुलाने और सोचने पर मजबूर कर गई। अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी फिल्म के नायक नायिका थे। बच्चे बड़े होने पर किस तरह माता पिता को दुत्कारते हैं, उसकी बहुत ही अच्छी कहानी रवि चोपड़ा ने पर्दे पर उतारी थी। फिल्म की सफलता ने साबित कर दिया कि दर्शक सिर्फ नंगापन ही नहीं, बल्कि अच्छी और स्तरीय फिल्मों को भी स्वीकार करते हैं।’ क्रमशः