लोकभाषा : प्राकृत अपभ्रंश :
जिस समय प्राकृतें साहित्यिक अभिव्यंजना का माध्यम बनी हुई थीं, उस समय जन साधारण के विचार विनिमय का साधन विविध क्षेत्रों की विभिन्न अपभ्रंश भाषाएँ थीं, जिनसे कालान्तर में आधुनिक भारतीय आर्यभाषाओं की उत्पत्ति हुई। जहाँ तक हिन्दी का प्रश्न है, उसकी समस्त बोलियाँ बिहारी, पूर्वी हिन्दी, पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी तथा पहाड़ी उपभाषाओं के अन्तर्गत आती हैं। इनमें से बिहारी उपभाषा मागधी अपभ्रंश से और पूर्वी हिन्दी उपभाषा अर्धमागधी अपभ्रंश से उद्भूत मानी जाती हैं। पश्चिमी हिन्दी, राजस्थानी और पहाड़ी उपभाषाओं का उद्भव शौरसेनी अपभ्रंश से माना जाता है। पहाड़ी के तीन रूपों में से पश्चिमी पहाड़ी हिमाचल में पूर्वी पहाड़ी नेपाल में और मध्य पहाड़ी उत्तरांचल में प्रचलित हैं। उत्तरांचल के गढ़वाल मण्डल में गढ़वाली और कुमाऊँ मण्डल में कुमाउनी का बोलबाला रहा है।
जिस तरह पहाड़ी नदियों के पानी की बूँदें ऊबड़-खाबड़ चट्टानों में भी एक दूसरे को ठेलकर आगे बढ़ते हुए सतत प्रवाह उत्पन्न करती हैं, उसी तरह पहाड़ी घाटियों में रहने वाली जातियाँ भी जीवन के संघर्षो में विपरीत परिस्थतियों को झेलकर विकास करते हुए अपनी परम्पराओं को गतिशील रखती हैं। ये ही क्यों, सभी सभ्यताएँ अपने उत्थान की तत्परता के साथ-साथ अपने अस्तित्व की सुरक्षा के प्रति भी चैतन्य रहती हैं। इस प्रक्रिया में दूर-दूर सम्पर्क साधने के बावजूद वे खुद पर कोई बाहरी आँच नहीं आने देना चाहती और कहीं कुछ छोड़ते हुए या कभी कुछ जोड़ते हुए प्रगति की ओर अग्रसर रहती है। इस प्रगति से अनुप्राणित जनजीवन की भाव भंगिमायें उनके भाषण में स्पष्टतः परिलक्षित होती हैं।
भाषा को किसी भी रूप में क्यों न देखें उसे समाज और व्यक्ति से अलग नहीं किया जा सकता और इसी कारण समाज और व्यक्ति से सम्बन्धित जो भी उपकरण हैं, वे भाषा को प्रभावित करते हैं। दूसरी ओर यही भाषा समाज और व्यक्ति का स्वरूप स्पष्ट करने में सहायक होती है। भाषा के विविध अंग समाज और व्यक्ति की मनोभावनात्मक दशाओं से इस तरह जुड़े हुए हैं कि उनको अलग किया जाना सम्भव नहीं है। अतः भाषा के साथ समाज और व्यक्ति को संबन्धित किया जाना पूर्णतः उपयुक्त है। क्रमशः