विशेष: वरदान या अभिशाप:
आजकल जब विश्व के किसी भी देश के किसी भी संकट से ग्रस्त लोगों के लिए वायुयानों द्वारा तरह तरह का सामान भेजा जाता है या कोई रोबोट एक पेड़ काटकर उसे उठाता है ओर उसके गंतव्य तक पहुचा देता है या जे सी बी से विशाल पर्वतों को हटाकर समतल रास्तों का निर्माण किया जाता है अथवा जब घर बैठे हर प्रकार की ऐश्वर्यमयी सुविधाएं प्राप्त होती हैं, तब ऐसा लगता है कि विज्ञान मानव जाति के लिए एक अनोखा वरदान है, जिसने आम आदमी की विविध कल्पनाओं को इच्छानुकूल आकार देकर हमारे सामने खड़ा कर दिया है।
शायद इसीलिए रूसी लेखक टाॅल्सटाॅय ने यह लिखा था कि ‘ धर्म का युग चला गया। विज्ञान के अतिरिक्त अन्य किसी बात पर विश्वास करना मूर्खता है। जिस किसी वस्तु की हमको आवश्यकता है, वह सब विज्ञान से प्राप्त हो जाती है। मनुष्य के जीवन का प्रदर्शन केवल विज्ञान ही होना चाहिए।’
फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि विज्ञान अगर आकाश में महानगर की कल्पना कर सकता है तो पृथ्वी पर नागासाकी और हिरोशिमा जैसे महानगरों को उजाड़ भी सकता है। विज्ञान की प्रगति की पराकाष्ठा देखकर ऐसा प्रतीत होता हे कि ज्यों ज्यों शक्ति में वृद्धि होती है, त्यों त्यों सद्भावनाओं का ह्रास होता जाता है। ऐसी स्थिति में विज्ञान की एकांगी प्रगति को ही मानव जाति का वास्तविक प्रगति मानना भूल होगी।
विज्ञान की शक्ति में धर्म की आध्यात्मिक शक्ति का योग आवश्यक है, ताकि मन और बुद्धि का संतुलन बना रहे। मन और बुद्धि के संतुलित धरातल पर विज्ञान और अध्यात्म से बनने वाली संस्कृति ही मानवता के लिए कल्याणकारी हो सकती है। यही संस्कृति ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’के आदर्श को सच्चे अर्थों में स्थापित कर सकती है।
इसलिए हमें विज्ञान को वरदान या अभिशाप न मानकर मानव की बुद्धि से अर्जित ऐसी शक्ति मानना चाहिए, जिसके प्रयोग के लिए विवेक की आवश्यकता पड़ती है। विवेक रहित स्थिति में विज्ञान अभिशाप बन सकता है और विवेक सहित स्थिति में यह वरदान सिद्ध होता है। अर्थात् विज्ञान एक ऐसी जलती हुई लौ है, जिसका सदुपयोग किया जाए तो घर में उजाला हो सकता है और दुरुपयोग किया जाए तो सारा घर जलकर खाक भी हो सकता है। यदि विवेकपूर्वक विज्ञान का प्रयोग किया जाए तो निसंदेह इस पृथ्वी को स्वर्ग बनाया जा सकता है।