लोकभाषा: भारोपीय:
विश्व के समस्त भाषा परिवारों में भारोपीय भाषा परिवार का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारोपीय शब्द अपने परिवार की भाषाओं के भारत से यूरोप तक के भौगोलिक विस्तार का द्योतक है। इस परिवार की भाषाएँ बोलने वालों की संख्या विश्व में सर्वाधिक है। इस परिवार के अन्तर्गत भारत, ईरान और यूरोप की विभिन्न भाषाएँ सम्मिलित हैं, जिनमें से कुछ भाषाएँ साहित्यिक दृष्टि से पर्याप्त सम्पन्न एवम् उत्कृष्ट कोटि की हैं ; जैसे- ग्रीक, लैटिन, संस्कृत आदि।
भारोपीय भाषा के मूल स्थान के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद रहा है। कुछ इसे यूरोप में मानते रहे हैं और कुछ एशिया में। डाॅ. रामविलास शर्मा के शब्दों में – भाषा विज्ञान और पुरातत्त्व दोनों ही इस सत्य की ओर इंगित करते हैं कि पूर्व से पश्चिम की ओर ऐसे जनों का अभियान हुआ जो संस्कृत परिवार से मिलती-जुलती भाषाएँ बोलते थे। इन भाषाओं के सम्पर्क में बेबीलोन से लेकर मिस्र तक के सभी जन आए। इधर काकेशस पूर्वी मध्य तथा दक्षिण यूरोप पर भी इनका प्रभाव पड़ा। स्लाव, जर्मन, ग्रीक, लैटिन परिवारों में जो समानता है, उसका कारण उनका संस्कृत परिवार की भाषाओं से सम्पर्क है।
प्रारंभ में भाषा वैज्ञानिकों की यह धारणा थी कि भारत और यूरोप की भाषाओं के बोलने वाले आर्य ही थे, जो प्रारंभ में किसी एक ही स्थान पर रहते थे। परवर्ती भाषाविदों का मत यह है कि भारतीय और ईरानी भाषाओं के प्राचीन रूपों में पर्याप्त साम्य है, अतः भारत और ईरान की भाषाओं को आर्य भाषाएँ मानना चाहिए। इसकी पुष्टि ईरान शब्द के विकास ;आर्याणाम्द्ध में खोजी जाती है। अधिकांश विद्वानों का अनुमान यह है कि मूल आर्य ईरान होते हुए भारत आए होंगे, जिनमें से कुछ ईरान में ही बस गए होंगे। इन आर्यों की भाषाओं को तीन शाखाओं में विभाजित किया जाता है- क्रमशः