लोकगीत : परंपरागत लोकगाथाएं :
लोकगायकों के कण्ठों के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी विस्तार प्राप्त करने वाली
गाथाएं परंपरागत लोक गाथाओं की श्रेणी में आती हैं। अपने समाज की सभ्यता
और संस्कृति से परिचय के लिए कुमाऊँ में ये गाथाएं बड़े चाव के साथ गाई और
सुनी जाती हैं। इनमें दो गाथाएं प्रमुख हैं – मालूसाही एवं रमौल।
मालूसाही
यह कुमाऊँ की पहली प्रसिद्ध लोकगाथा है, जिसमें काठगोदाम की चित्रशिला से लेकर
जोहार-तिब्बत तक का पर्वतीय क्षेत्र समाहित है। इसके अनेक प्रसंगों के सजीव वर्णन
यहां की प्राचीन सामंती व्यवस्था के इतिहास को भी आलोकित करते हैं। यह द्वाराहाट के
शासक मालूसाही एवं शौक्याण देश की राजुला का प्रेमाख्यान है।
इस गाथा के कुमाऊँ के अलग-अलग क्षेत्रों में विभिन्न रूपांतर पाए जाते हैं।
गाथा का प्रारंभ इस प्रकार होता है –
आ . . . सुणि लिया भाई बंदौ जिया जागी रया
दैंण है जाया दैण, हो महादेव !
दैंण है जाया, हो गौरा पारवती,
काम सुफल करिए हो सिद्धि का गणेश ,
तै बखता पंचनामा देवा रौंनी पंचचूली मांजा
पंचा देवो नाम, दैंण है जाया भगवाना।’
लोकगीत : रमौल :
यह कुमाऊँ की दूसरी परंपरागत लोकगाथा है, जो मूलत: गढ़वाल की लोकगाथा
का विस्तार है और प्राय: कुमाऊँ के पश्चिम -उत्तरी भागों में गाई जाती है। इसमें
रमौल वंश के पंद्रह-बीस शासकों की वीरतापूर्ण कथाएं समन्वित हैं, जिनमें से
गंगू रमौल, सिदुवा रमौल व बिदुवा रमौल के किस्से अधिक लोकप्रिय हैं।
एक गाथा में भगवान कृष्ण गंगू रमौल से शिव मंदिर बनाने के लिए रतंगली
सेरी में जगह मांगते हैं –
‘एका दिना का बीच कृस्न भगवानूं ले तब
रमौली गड़ जागा मांगी हाली
सुण सुणा म्यार रमौल, हमूं कणि जागा दि दियौ
एक मुठि जागा दि दियौ रतंगली सेरी मांजा
शिव को मंदीर बणौनूं तुमारा रतंगली
तब तुमरो काम सुपल होलो’