विशेष: तदनन्तर:
देश आजाद हुआ तो न तिलक रहे न गांधी। रह गए अंग्रेजीपरस्त नेता, अंग्रेजी पढ़े अफसर और अंग्रेजी सभ्यता से प्रभावित सामाजिक कार्यकर्ता, जिनके एकजुट शिकंजे में फंसकर हिंदी राष्ट्रीय एकता का समाधान न रहकर राष्ट्रीय एकता की समस्या बन गई। हिंदी के नाम पर भाषाई आंदोलन होने लगे। ऐसे विवाद राष्ट्रीय प्रगति के पथ में ही बाधक नहीं होते, सामाजिक सद्भाव के लिए भी घातक होते हैं।
भाषा की एकता का अर्थ होता है विचारों की अभिव्यक्ति की एकता, जो अनेकता को एकता के सूत्र में बांधती है। यह सूत्र अपने प्रयोक्ताओं के जीवन में एक ऐसी रसमयता प्रवाहित करता है, जो शाश्वत संजीवनी का काम करती है। भाषा केवल व्यक्ति के ही नहीं उसके समाज के विचारों को भी अभिव्यक्ति प्रदान करती है। भाषा के माध्यम से ही किसी राष्ट्र के आदर्श मुखरित होते हैं, इसलिए राष्ट्रीय एकता के लिए वंशगत समानता से भाषागत समानता को अधिक वरीयता दी जाती है। अमेरिका में भी अनेक नस्लों के लोग रहते हैं, पर भाषायी समानता के कारण उनका राष्ट्रीय स्वरूप एक है। यहूदियों की अपनी भाषा के प्रति एकनिष्ठ आस्था उन्हें अपराजेय बनाए हुए है।
स्मझने वाली बात यह है कि राष्ट्रीय भाषा और राष्ट्रीय एकता अलग अलग चीजें नहीं हैं। राष्ट्र के अंतर्गत एक भूमिखण्ड पर रहने वालों की संस्कृति और भाषा एक ही होती है। इस सत्य को नकारने वालों को राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन का यह कथन नहीं भूलना चाहिए कि -‘राजनीति से खिलवाड़ करने वाले नेता आते जाते रहेंगे किंतु भारतीय संस्कृति की प्रतीक हिंदी, एकता का सूत्र बनाने वाली हिंदी सदा अमर रहेगी।’
यहां पर आधुनिक काल के अग्रगण्य साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र का एक प्रसिद्ध दोहा भी उल्लेखनीय है –
निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति कौ मूल ।
बिनु निज भाषा ज्ञान के मिटै न हिय कौ सूल ।।