विशेष: भाषिक एकता:
जहां तक भारत में भाषा प्रयोग का प्रश्न है, प्राचीन काल में संस्कृत का प्रचलन था; जो उत्तर से दक्षिण तक और पूर्व से पश्चिम तक के अनेक प्रकार के लोगों को एक सूत्र में बांधे थी। संस्कृत के बाद पालि, प्राकृतों और अपभ्रंशों ने भी संपूर्ण राष्ट्र में भावनात्मक ऐक्य बनाए रखा। अपभ्रंशों के बाद अवधी और ब्रज ने इस कार्य का दायित्व संभाला, जिसे मुगलों के शासन काल में फारसी को सौंप दिया गया।
अंग्रेजांे के शासन काल में फारसी का स्थान अंग्रेजी ने ले लिया, जो अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी यहीं है। उसकी उपस्थिति से भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा की समस्या नहीं सुलझ पा रही है, नतीजतन हमारी राष्ट्रीय एकता की भावना का प्रभावित होना अस्वाभाविक नहीं। यहां पर सोवियत संघ के तानाशाह स्तालिन के ये शब्द उल्लेखनीय हैं कि -‘‘सामान्य भाषा के अभाव में राष्ट्रीय एकता की कल्पना नहीं की जा सकती।’’
राष्ट्रीय एकता में हिंदी का योगदान परखने के लिए सबसे पहले हिंदी साहित्य के इतिहास को पलटना उचित रहेगा। वहां आदिकाल का चारण काव्य या भक्तिकाल का भक्ति साहित्य सारे राष्ट्र की शारीरिक एवं मानसिक स्फूर्ति साधन बना। रीतिकालीन बिहारी का श्रृंगार रस और भूषण का वीर रस सारे देश में मनोंभावों को आप्लावित करता रहा। आधुनिक कालीन पद्य व गद्य ने भी पूरे मुल्क को आजादी की लड़ाई लड़ने के लिए ललकारा।
राष्ट्रीय एकता के लिए एक भाषा की आवश्यकता का अनुभव स्वतंत्रता संग्राम के दौरान ही होने लगा था, क्योंकि अंग्रेज शासकों की ‘फूट डालो और राज करो’ वाली नीति ने भाषा के क्षेत्र में भी फूट डाल रखी थी। तब लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने कहा था कि – ‘राष्ट्र के एकीकरण के लिए सर्वमान्य भाषा से अधिक बलशाली कोई तत्व नहीं। मेरे विचार में हिंदी ही ऐसी भाषा है।’ गांधीजी कहते थे कि – ‘‘हिंदी का प्रश्न मेरे लिए आजादी का प्रश्न है।’ स्वतंत्रता संग्राम के लिए राष्ट्रवासी हिंदी के झण्डे के नीचे इकट्ठे हुए और एक होकर उन्होंने अपना मकसद भी पूरा किया। क्रमशः