विशेष: प्रभाव:
प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार साहित्य और काव्य पर्यायवाची हैं। संस्कृत
में प्रचलित है कि – ‘काव्येषु नाटकं रम्यं’ अर्थात् साहित्य की नाटक विधा सर्वाधिक
रमणीय होती है। नाटक के विषय में पाश्चात्य विद्वान मुनरो का यह मत रहा है कि –
‘‘ वही नाटक वास्तविक नाटक कहलाने योग्य है, जिसमें समाज की उदार भावना
से आलोचना की गई हौ।’’ नाटक सुशिक्षितों, अर्धशिक्षितों,अल्पशिक्षितों या अशिक्षितों
आदि सभी के द्वारा देखे और समझे जा सकते हैं; अतः उनकी प्रभावशीलता का क्षेत्र
व्यापक होता है।
संस्कृत में लिखित कालिदास और भवभूति के नाटक तथा हिंदी में लिखित भारतेंदु हरिश्चंद्र
और जयशंकर प्रसाद के नाटकों का समाजिक चेतना जागृत करने की दृष्टि से विशेष महत्व
है। नाटक के अतिरिक्त साहित्य की अन्य विधाएं भी अपने पाठकों के समक्ष किसी समस्या
का विश्लेषण कर उन्हें आदर्श मार्ग का अनुगामी बनने की प्रेरणा प्रदान करती हैं। इस
प्रक्रिया में साहित्य का समाज पर भिन्न भिन्न प्रकार से प्रभाव पड़ता है।
कलावादियों के अनुसार चूंकि साहित्य भी एक कला है, अतः उसका उद्देश्य भी कला
प्रदर्शनहै; समाज के उत्थान पतन से उसका कोई संबंध नहीं है। यह मान्यता पश्चिमी
जगत में अधिकप्रचलित है। उपयोगितावादियों के अनुसार साहित्य एक सामाजिक वस्तु है,
अतः उसे समाज केलिए उपयोगी होना चाहिए। यह भावना भारतीय साहित्य में अधिक
दिखाई देती है। पहली मान्यतामें सौन्दर्य बोध तथा दूसरी भावना में नैतिकता का आग्रह
स्पष्ट है। सौन्दर्य बोध के नाम परअश्लीलता की ओर उन्मुख होना या नैतिकता के नाम
पर उपदेश मात्र प्रदान करना भी साहित्यका लक्ष्य नहीं होता। साहित्य की कला जीवन
की रोचक व्याख्या करती है और उपयोगिता सामाजिक सद्भाव जगाती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि साहित्य और समाज का पारस्परिक संबंध कितना अटूट है।
एक ओरसाहित्यकार अपनी युगीन परिस्थितियों से उद्वेलित होकर साहित्य साधना के लिए
सन्नद्ध होता है औरदूसरी ओर अपने साहित्य द्वारा उन परिस्थितियों की आलाकचना करते
हुए उनमें परिवर्तन लाना चाहताहै। जाहिर है कि वह जिस समाज से प्रेरित होकर कलम
उठाता है, उसकी कलम उसी समाज केलिए प्रेरक का कार्य करने लगती है। इस तरह
समाज साहित्य का विषय बनता है और साहित्य समाजका दर्पण बनकर उसकी छवि प्रदर्शित
करने लगता है।