गजल: खो गया:
संध्या का गीत रात के साजों में खो गया
इंसान जि़्ान्दगी के तकाजों में खो गया
छोटा सा एक रोग छिपाने के फेर में
तन-मन तरह-तरह के इलाजों में खो गया
बारात में जो प्रेरणा देता था नाच की
अपने ही ख़यालों के जनाजों में खो गया
किस बेख़ुदी में ख़ुद को ख़ुदा मानता रहा
जो आजकल तमाम नमाजों में खो गया
जो गाँव की संस्कृति के बगीचे में खिला था
वह फूल भी शहर के रिवाजों में खो गया
जिस आचरण की बात कर रहा था नया दौर
वह वक़्त की कृपा से मिजाजों में खो गया