लोकगीत : ॠतु विषयक कथागीत :
ॠतुरैण ‘चैती’ गाथा है और केवल चैत के महीने गाई जाती है। इसे ‘ॠतुगीत’ भी कह
सकते हैं। चैत की संक्रांति के दिन से ही ढोली गले में लटकते ढोल बजाते हुए इसे गाते
रहे हैं और उनकी पत्नियां इसमें ‘भाग’ लगाती रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व तक ढोलिनें नाचती
भी थीं।
नागवंशीय राजा के साथ ब्याही गौरी के भ्रातृस्नेह में उमड़ते हुए आंसुओं से भीगे इस
कथागीत में पर्वतीय प्रकृति की सुंदरता एवं नारी हृदय की कोमलता का अद्भुत समन्वय
हुआ है। चैत के महीने में भाई अपनी बहिन से मिलने जाते हैं; इसलिए गौरी का भाई भी
छोटा होने के कारण माता के द्वारा रोके जानेे के बावजूद रास्ते की मुश्किलों को पार करता
हुआ अपनी बहिन से मिलने जाता है।
बहिन ने भाई को जी भरकर भेंटा। इसी बीच कालीनाग आ पहुंचा। अपनी पत्नी को परपुरूष
के साथ देख उसने भाई को डस लिया। भाई की मृत्यु से दुखित बहिन दांतों तले जीभ दबा
कर मर गई। वास्तविकता जानकर कालीनाग ने उन्हें अमृत से सींचकर जिंदा कर दिया।
भितर पलंग गोरिधना रोलि रितु
‘बास-बास कफु चाड़ा म्यर मैत बास रितु
बाबु सुणला भाया भेंट लाला रितु
द्योराणी जेठानी का भै भेंट उनन रितु
मैं भयूं निरांशी बैना रितु
न कोखी बालो न पीठी भायलो रितु
को उंछ भेटुलि रितु
आंसु पडि़ जूंन बाबुक घर रितु
लाडि़ली चेलिया भालाघर देछन रितु
मैं बेचि खायूं ये चौगंगा पार रितु
म्यर देस मैत का मनखि ले न उंना रितु
को उंछ भेटुलि रितु’