गजल: है ना:
दर्द दो रोज़ का वहम है ना
वक्त हर जख़्म का मल्हम है ना
साँस लेते हुए कभी न थके
जब से पैदा हुए हैं हम है ना
उनकी फुरकत की परेशानी में
खुशी देने लगे हैं गम है ना
कैसी यादों की घटा छाई है
आँख होने लगी है नम है ना
आदमी और जानवर में अब
फासले हो गए हैं कम है ना
जि़्ांदगी ने बहुत सताया पर
मौत करती रही रहम है ना