विशेष: साहित्य और समाज:
साहित्य में कल्याणकारी प्रवृत्ति की अनिवार्यता साहित्यकार की सामाजिक उपयोगिता सिद्ध करती है। साहित्यकार जिस समाज में रहता है, उसकी मनःस्थितियों और परिस्थितियों को जानता है। उसके समाज के सुख दुख, हर्ष विषाद उसे भी सम्यक् रूप से प्रभावित करते हैं। इस प्रभाव से साहित्यकार के मन में जो अनुभूतियां उत्पन्न होती हैं; वे कभी यथार्थवादी चित्रण के रूप में, कभी आदर्शवादी चिंतन के रूप में और कभी क्रांतिकारी उत्प्रेरण के रूप में अभिव्यक्त होता है।
उदाहरण के लिए हिंदी साहित्य को ही लें तो आदिकाल, भक्तिकाल और रीतिकाल या आधुनिक काल की रचनाओं की प्रवृत्तियां तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के पर्याप्त अनुकूल परिलक्षित होती हैं। इस प्रकार साहित्य एवं समाज का अन्योन्याश्रित सम्बंध असंदिग्ध है।
समाज का साहित्य पर प्रभाव किस प्रकार पड़ता है, इस संदर्भ में डाॅ0 सम्पूर्णानन्द के ये शब्द उद्धरणीय हैं कि – ‘‘लेखक के उपर परिस्थितियां निरंतर अपना प्रभाव डालती रहती हैं। लेखक उनसे बचने का प्रयत्न करे तो भी नहीं बच सकता है और न वह यह ही कह सकता है कि मैं अपनी घड़ी के अनुसार इतने बजे से लेकर इतने बजे तक अपने चारों ओर की परिस्थितियों से प्रभाव ग्रहण करूंगा और इसके बाद वही लेखक चाहे या न चाहे, परिस्थतियां उस पर प्रभाव डालेंगी ही। जीवन में जो क्रियाएं हो रही हैं, साहित्यकार पर उनकी प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक और अनिवार्य है।’’
उक्त कथन से स्पष्ट है कि सामाजिक परिस्थितियां साहित्य को अनिवार्य रूप से प्रभावित करती हैं। इस तथ्य के आलोक में यदि हिंदी साहित्य के इतिहास के काल विभाजन को ही लें, तो ज्ञात होता है कि सामाजिक परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ साथ साहित्यिक प्रवृत्तियों में भी अन्तर आता रहा है। हिंदू शासकों की वीरता ने आदिकाल को, धार्मिक दृढ़ता की आवश्यकता ने भक्तिकाल को, कवियों के आश्रयदाताओं की विलासप्रियता ने रीतिकाल को और स्वतंत्रता की अभिलाषा ने आधुनिक काल को कई प्रकार से प्रभावित किया है। क्रमशः