विशेष: साहित्य:
अपने भारत के संस्कृत के विद्वानों के अनुसार – ‘हितं सन्निहितं तत् साहित्यं’ अर्थात् साहित्य वही है, जिसमें मानव का हित सन्निहित हो। पाश्चात्य विद्वान हेनरी हडसन के मतानुसार – ‘साहित्य मूलतः भाषा के माध्यम से जीवन की अभिव्यक्ति है।’ आधुनिक काल के आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के शब्दों में – ‘ज्ञानराशि के संचित कोश का नाम साहित्य है।’ उनसे पहले भक्तिकाल के गोस्वामी तुलसीदास जी ने लिखा है कि –
कीरति भनिति भूति भलि सोई ।
सुरसरि सम सब कर हित होई ।।
साहित्य की उपर्युक्त विभिन्न परिभाषाओं से यह स्पष्ट हो जाता है कि साहित्य और जीवन का घनिष्ठ पारस्परिक संबंध होता है। साहित्य मानव जीवन के यथार्थ की सुंदर व्याख्या ही नहीं करता, बल्कि उसके समक्ष एक भव्य आदर्श भी प्रस्तुत करता है। साहित्य का लक्ष्य केवल मानव समाज का चित्रण करना ही नहीं होता, वरन् उएसके कल्याण की दिशायें आलोकित करना भी होता है। साहित्य में समाज की समस्यायें और भावनायें समान रूप से अभिव्यक्त होती हैं, अतः साहित्य को समाज का दर्पण भी कहा जाता है।
किसी भी साहित्य का परम उद्देश्य अपने समाज का उत्थान करना होता है। इतिहास गवाह है कि समाज के उत्थान या सुधार के लिये जब धर्म के आदेश, ज्ञान के संदेश और नीति के उपदेश असफल होने लगते हैं, तब समाज को सही राह पर लाने का उत्तरदायित्व साहित्य के उपर आ जाता है; जो सद् और असद् की प्रभावशाली व्याख्या करके मनोरंजक विधि से अपना लक्ष्य प्राप्त करता है।
अधिकांश लोग यह भी मानते हैं कि अच्छा साहित्य समाज को अच्छाइयों की ओर ले जाकर जिस तरह उंचा उठा देता है उसी तरह बुरा साहित्य समाज को बुराइयों की ओर ले जाकर नीचे गिरा सकता है, इसलिये हर देश और हर भाषा में साहित्य की उत्कृष्टता पर विशेष बल दिया जाता है। यही कारण है कि साहित्य में लोक मंगल की भावना सर्वोपरि मानी जाती है। क्रमशः