सिनेमा: कथावस्तु:
पौराणिक साहित्य और पौराणिक फिल्मों में कथावस्तु की दृष्टि से पर्याप्त अंतर
परिलक्षित होता है।इसका प्रमुख कारण यह है कि पौराणिक फिल्मों की पटकथा
का आधार संस्कृत के मूल पुराण नहोकर लोक प्रचलित, थियेटरों में मंचित या
स्थानीय भाषाओं में अनूदित सरल कथानक होते हैं।
ऐसे ही सरल कथानकों पर 1926 में भक्त प्रह्लाद, सन्त एकनाथ, राम राज्य
विजय, जानकी स्वयंवर,कीचक वध; 1927 में निद्रित भगवान, सीता, भक्त
सुदामा, कृष्ण सखा, रुक्मिणी हरण, सती मदालसा,हनुमान जन्म, जय भवानी,
शंकराचार्य; 1928 में सीता स्वयंवर, सीता हरण, गोपाल कृष्ण, मुरली वाला,
राधा माधव, राधा मोहन, सुदर्शन, परशुराम, संत तुकाराम, श्रवण कुमार;
1929 में कृष्णावतार, राधा,महात्मा, संत ज्ञानेश्वर, गोपाल कृष्ण, कंस वध,
माया मधुसूदन, गोवर्धनधारी, श्रीकृष्ण मुरारी, कृष्णलीलातथा 1930 में कृष्ण माया,
द्वारिका, द्वारिकाधीश, विश्वामित्र, बालगोपाल, विष्णुशक्ति, विष्णुलीला, हरिमाया,
नृसिंह अवतार, मत्स्य वाराह, वीर अभिमन्यु, पृथ्वीपुत्र – भीम या वीर भीमसेन
आदि अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ।
इस संदर्भ में खास तौर से ध्यान देने वाली बात यह है कि पहले इन पौराणिक
फिल्मों में ‘ग्लैमर’ अर्थात ऊपरी चमक दमक का सर्वथा अभाव था, साथ ही उनमें
दर्शकों की नाटकीय सुरुचि का भी कोई ध्यान नहींरखा जाता था; पर उत्तरोत्तर
विकसित हो रहे फिल्मों के शिल्प ने दर्शक की भावनाओं को समझा और फिल्म
के दृश्य विधान तथा पटकथा के चित्रीकरण में भव्यता, रोचकता और अद्भुत
चमत्कारों की संयोजना का अधिक से अधिक प्रयास किया जाने लगा। क्रमशः