सिनेमा: पौराणिक:
हमारे देश में जिस समय पराधीनता के विरुद्ध विद्रोह की चिंगारी सुलगने लगी थी,
उस समय स्वदेशी संस्कृति के प्रचार प्रसार एवं संदेश उपदेश के लिए विचारवान
उद्यमियों ने सिनेमा की क्षमता को समझा और गौरवशाली अतीत की खोज के
तारतम्य में पुराकथाओं के आधार पर फिल्मों का निर्माण कर जनजागरण का बीड़ा
उठाया।
इसके दो कारण हो सकते हैं – एक तो यह कि पौराणिक कहानियां वाचिक परंपरा के
माध्यम से जनजीवन में रची बसी होती हैं और दूसरा यह कि उनमें बुराई पर अच्छाई
की विजय का प्रतीकात्मक तत्व होता है। इनकी वजह से फिल्मकारों को न तो अपनी
फिल्मों के लिए दर्शकों को आकर्षित करने का प्रयास करना पड़ा और न ही उन्हें अलग
से कोई आन्दोलनकारी भाषण देना पड़ा। उन्हें विश्वास था कि दृश्यकला की यह विधा
निश्चित रूप से प्रेरक सिद्ध होगी।
1913 से 1920 के बीच बनी अवाक् पौराणिक फिल्मों में राजा हरिश्चन्द्र, मोहिनी
भस्मासुर – 1913; सत्यवान सावित्री – 1914; कीचक -1915, श्रीकृष्ण जन्म –
1916, नल दमयंती – 1917, कालिय मर्दन, सीता स्वयंवर – 1918; लंका दहन,
राम बनवास, सैरंध्री, विल्व मंगल – 1919; शकुंतला, राम जन्म, सती देवयानी,
अहिल्या उद्धार – 1920 विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
क्हा जाता है कि इसके अनंतर 1921 में सुरेखा हरण, भक्त विदुर, शनि प्रभाव,
वाल्मीकि; 1922 में सत्यनारायण, शिशुपाल वध, सन्त नामदेव, भीष्म प्रतिज्ञा;
1923 में श्रीकृष्ण अवतार, सेतु बन्धन, अश्वत्थामा, जरासंध वध, गुरु द्रोणाचार्य;
1924 में वामन अवतार, सीता बनवास, राम रावण युद्ध; 1925 में दाशरथी राम,
लवकुश, रुक्मिणी सत्यभामा, महाभारत, द्वारकाधीश, द लाइट आॅफ एशिया नामक
फिल्में काफी लोकप्रिय हुईं। क्रमशः