विचार: गुरु – शिष्य: संवाद
शिष्य – मेरे अंदर एक आग है गुरुदेव ! जो एक पल के लिए भी मुझे चैन से नहीं
बैठने देती।
गुरु – ये आग तो सभी में होती है वत्स! सभी को बेचैन करती है। वस्तुतः यह जीवन
का एक अनिवार्य तत्व है। ‘क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंचतत्व मिलि अधम
सरीरा।’
शिष्य -लेकिन मेरे अंदर की ये आग कोई साधारण आग नहीं है गुरुदेव ! यह एक
जुनून है, किसी भी कीमत पर मुंबई जाने का और कुछ कर दिखाने का।
गुरु – तुम क्या समझते हो वत्स! कि ये जुनून मुंबई के स्लम्स में रहने वाले वाले
नौजवानों में कम है ? मेरे खयाल से तुम वहां की चिंता मत करो। तुम्हारे न
जाने से वहां का कोई काम नहीं रुकेगा।
शिष्य -लेकिन मैं अपने इस मन का क्या करूं गुरुदेव ! बार-बार लगातार उधर ही
भागता है ये मन।
गुरु – मन …यानी आकाश। ये तो कल्पना के क्षितिज तक दौड़ लगाता है। सभी का
भागता है वत्स! आकाश भी जीवन का एक अनिवार्य तत्व है।
शिष्य – अनिवार्य है तो आराम से क्यों नहीं बैठता ? हमेशा कुछ न कुछ तलाशता
रहता है। पता नहीं गुरुदेव ! इसकी ये प्यास कैसे बुझेगी ?
गुरु – पानी से वत्स! ठण्डे जल से। ये भी जिंदगी के लिए बहुत जरूरी होता है।
शिष्य – अब आप कहोगे कि ये भी जीवन का एक अनिवार्य तत्व है। क्रमशः