सिनेमा: एंटी हीरो:
मानव सभ्यता के इतिहास में निर्णायक माने जाने वाले प्रेम और युद्ध जिस तरह साहित्य के कथानक बनकर प्रतिष्ठित हुए, उसी तरह फिल्मों के विषय बनकर चित्रांकित हुए। इनके बिना हमारे देश में तो रामायण/महाभारत जैसे पौराणिक महाकाव्यों पर भी फिल्में बनाना संभव नहीं। समय परिवर्तन के साथ साधन भले ही बदल जाएं, पर आम आदमी को अच्छे और बुरे का भेद समझाने के लिए हिंसा का सहारा लेना ही पड़ता है।
शायद इसीलिए बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में निर्मित हिंदी फिल्मों के नायक को ‘एंटी हीरो’ को एक नई छबि प्रप्त हुई, जो सातवें दशक के खलनायक या आठवें दशक के एंग्री यंगमैन से अलग है। उसकी बगावत की वजह भी उनसे अलग है और अपने लक्ष्य को पाने के लिए वह किसी भी हद को तोड़ने के लिए तत्पर है। नायक की ऐसी छबि को स्थापित करने वाली फिल्मों में डर, बाजीगर, खलनायक – 1993; अंजाम – 1994, अग्निसाक्षी – 1996, जीत, दरार – 1997; अस्तित्व – 2000, वास्तव – 2001 आदि का विशेष हाथ रहा।
‘सिनेमा नया सिनेमा’ नामक पुस्तक के लेखक श्री ब्रजेश्वर मदान के शब्दों में ‘यह गंभीर अध्ययन का विषय हो सकता है कि कैसे विषयहीन कही जाने वाली फिल्में समाज में पैसे, उसके प्रभाव और उसके लिए होड़ को बढावा देती हैं। एक ऐसे समाज के लिए ये फिल्में काम करती हैं, जहां आर्थिक असमानता ज्यादा से ज्यादा मजबूत है। एक ऐसी समस्या की ओर ले जाती हैं, जहां आदमी धन और संपत्ति के लालच में पूरे समाज को मूल्यहीनता की तरफ ले जाने के लिए काम करता है।’ क्रमशः