सिनेमा: पुनः रोमांटिक:
हिंदी फिल्मोद्योग में नई स्फूर्ति का संचार करने के प्रयास में अंतर्राष्ट्रीय स्वीकृति के अभिलाषी फिल्मकारों ने अपने यहां के यथार्थ को प्रायः उस रूप में चित्रांकित किया, जिस रूप में उसे विदेशी पसंद कर सकें। इसके लिए उन्होंने भारतीय जीवना की उन समस्याओं को अपनी फिल्मों का विषय बनाया, जो विदेशी दर्शकों / आलोचकों से साधारणीकरण हेतु सरल हों। पर उन्होंने फ्रांस की न्यू वेव या यूरोप की फिल्मों को इस नजरिए से नहीं देखा कि उनसे नए दृष्टिकोण प्राप्त करें और हिंदी सिने दर्शकों को सिनेमा की परंपरागत रूढ़ियों से मुक्त कराने का दायित्व सम्हाल सकें।
दरअसल वे अपने प्रयासों में इतने अधिक प्रयोगवादी बन गए कि अपने लक्ष्य से ही भटक गए। यहां पर एक बात और स्मरणीय है कि जो फिल्मकार व कलाकार पहले सिनेमा की मुख्यधारा के विरुद्ध नएपन के लिए संघर्ष कर रहे थे, वे धीरे धीरे दूरदर्शन की ओर उन्मुख होने लगे। नया सिनेमा के पैरोकारों के इस भटकाव के कारण सिनेमा की मुख्यधारा में व्यावसायिक फिल्मकारों का वर्चस्व जस का तस बना रहा।
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बीसवीं शताब्दी के नवें दशक का समापन होते होते दर्शकों के दिल में जब एंग्री यंगमैन का प्रभाव समाप्त हो गया, तो निर्माता निर्देशकों ने फिर से रोमांटिक फिल्में बनाना शुरू कर दिया; जैसे – हीरो 1985, दूध का कर्ज 1986, मिस्टर इंडिया 1987, तेजाब और कयामत से कयामत तक 1988, मैंने प्चार किया और शोला और शबनम 1989 तथा आशिकी और दामिनी 19990 आदि। अपराध जगत से संबंधित उपकथाओं से संपन्न होने के कारण इनमे यद्यपि हिंसा का तत्व अधिक परिलक्षित हुआ, तथापि वे बाॅक्स आॅफिस पर हिट साबित हुईं।