गजल: पेड़ की कीमत:
गुलाम जिंदगी आजाद जो हो जाती है
ज़्र्रे ज़र्रे में नई बात नज़र आती है
नए माहौल नए जोश नए मौसम में
बहार खुशबुओं की बंसरी बजाती है
मगर जो पेड़ की कीमत नहीं समझते हैं
उनकी हर भूल उन्हें बेवजह रुलाती है
दबोचता है अंधेरा वो रोशनी अक्सर
जो शाम होते ही रंगों में बिखर जाती है
मगर जो पेड़ की कीमत नहीं समझते हैं
उनकी हर भूल उन्हें बेवजह रुलाती है