
उत्तराखण्ड: लोकसाहित्य:
कुमाउनी लोकसाहित्य का बहुलांष स्त्रियों द्वारा निर्मित है, जो पुरुषों की अपेक्षा अधिक सक्रिय वर्ग है। यहां की ग्रामीण स्त्रियां अकेले जंगलों में जाकर घास-लकड़ी काटती हैं, नदी-नालों से पानी भरती हैं, कृषि कार्यों में हाथ बंटाती हैं और सामूहिक उत्सवों में सक्रिय योग देती हैं। स्थानीय नृत्य गीतों में वह पुरुषों के साथ मिलकर अपने भावों की स्वच्छन्द अभिव्यक्ति करती हैं। नारी की विषिष्ट सामाजिक स्थिति के कारण ही कुमाउनी लोकसाहित्य में यह विषेषता लक्षित होती है।
लोक-साहित्य के वर्गीकरण में सामान्यतया जो पद्धति अपनाई जाती है, उसके आघार पर तीन वर्गाें- पद्य, गद्य-पद्यात्मक। चंपू। तथा गद्य में लोक-साहित्य विभाजित किया जाता है। कुछ विद्वान लोक-नाटिकाओं को पृथक् वर्ग के रूप में लेते हैं, तो अन्य कुछ लोक-नाटिकाओं को उनके माध्यम के अनुसार उपर्युक्त तीन वर्गों में ही सम्मिलित कर लेते हैं। इसी प्रकार लोक-सुभाषित अथवा लोकोक्तियां, पहेलियां तथा लोक-प्रचलित विष्वास एवं जादू-टोना कुछ वर्गीकरणों में गद्य के ही अंतर्गत सम्मिलित किया जाता है और कुछ अन्य वर्गीकरणों में पृथक् लिया जाता है।
जहां तक लोकसाहित्य के संकलन का संबंध है, भारत में 1784 ई0 में सर विलियम गौम्स के महान प्रयत्न से कलकत्ता में ‘एषियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल’ की स्थापना हुई, जिसके तत्वावधान में लोक साहित्य के संकलन एवं अनुषीलन संबंधी महत्वपूर्ण कार्य हुए हैं। अंग्रेज विद्वानों तथा ईसाई मिषनरियों ने भी इस दिषा में स्तुत्य प्रयास किए। जे0 एबेट ने 1854 में पंजाबी लोक साहित्य का संकलन किया। चाल्र्स ई0 गोबर ने 1871 में ‘फोक सांग्स आफ साउदर्न इण्डिया’ नामक पुस्तक लिखकर दक्षिण भारत के लोक साहित्य का महान उपकार किया।