
सिनेमा: अन्य फिल्मकार:
नई पीढ़ी के अन्य फिल्मकारों में से बी. आर. चोपड़ा ने एक ही रास्ता – 1956, नया दौर – 1957, साधना – 1958, गुमराह – 1963, वक्त – 1965; वी. शांताराम ने तूफान और दिया – 1956, दो आंखें बारह हाथ – 1957, गीत गाया पत्थरों ने – 1964; तारा चंद बड़जात्या ने आरती – 1962, दोस्ती – 1964; सुनील दत्त ने मुझे जीने दो – 1963, यादें 7 1965; के. ए. अब्बास ने शहर और सपना – 1964, आसमान महल – 1966 नामक फिल्मों का निर्माण कर हिंदी सिने दर्शकों को सिनेमा की क्षमता तथा का सम्यक् परिचय प्रदान किया।
बीसवीं शताब्दी के छठे दशक । 1961-1970। के प्रथम वर्ष से ही टेक्नीकलर, ईस्टमैनकलर, गेवाकलर आदि पद्धतियों पर रंगीन फिल्में बनना शुरू हुईं। इस दशक में दो और बातें ध्यान देने योग्य हैं। पहली ‘बीस साल बाद’ – 1962 से प्रारंभ होने वाली रहस्य-रोमांच भरी फिल्मों की परंपरा और दूसरी ‘किंग कांग’ 1962 से शुरू हुई दारा सिंह की फिल्में की परंपरा। रुस्तम सोहराब, फौलाद -1963, आया तूफान, दारा सिंह, हरक्यूलिस, जग्गा, रुस्तम ए रोम, सेमसन -1964, बाॅक्सर, खाकान, राका, शेरदिल, संग्राम, लुटेरा,टार्जन कम्स टू डेल्ही -1965; इंसाफ, जवां मर्द, खून का खून, नौजवान, रुस्तम ए हिंद, ठाकुर जरनैल सिंह, डाकू मंगल सिंह, दादा – 1966 आदि।
1963 के अंत में मुंबई में भारतीय फिल्मोद्योग का अर्ध शताब्दी समारोह आयोजित किया गया, जिसके उपरांत 1964 में दिल्ली में ‘तृतीय अंतर्राष्ट्रीय समारोह’ मनाया गया। इन दोनों समारोहों से फिल्मकारों को आशा के अनुरूप लाभ नहीं मिल पाया। कहा जाता है कि पहले समारोह में प्रदर्शित ‘ग्लिम्प्सेज आॅफ इ्रडियन सिनेमा’ – 1964 नामक बी. डी. गर्ग के वृत्तचित्र को सर्वाधिक सराहना मिली, जिसमें हिंदी सिनेमा की शैशवावस्था एवं तदनंतर प्रगति पर विधिवत् प्रकाश डाला गया था।