
उत्तराखंड : लोक साहित्य:
मनुष्य के पास अपनी बात दूसरों तक पहुंचाने या अपने मनोभावों को व्यक्त करने का सबसे सषक्त माध्यम भाषा है। भाषा अर्थ संप्रेषण के सामाजिक उद्देष्यों की पूर्ति ही नहीं करती, वरन् अपने वक्ताओं की सांस्कृतिक विरासत को भी सुरक्षित रखती है। एक ओर वह कठिन से कठिन मानसिक अवस्थाओं की अभिव्यक्ति का सक्षम साधन है, तो दूसरी ओर वह अपने वक्ता समाज को अस्मिता प्रदान करने वाला सहज आधार है।
लोक साहित्य वह युग-युगीन साहित्य है, जो प्रकृतितः परंपरा से प्राप्त होता है। जिसका कोई एक रचयिता नहीं होता, जिसे संपूर्ण लोक अपना मानता है, जिसे विषेषतः उस जनसमूह के मनोरंजन के माध्यम के रूप में लोकप्रियता मिली रहती है, जो ग्रामांचलों में रहता है और अधिक पढ़ा-लिखा नहीं होता।
यह साहित्य वस्तुतः जन साहित्य होता है, जिसमें जनजीवन के अनुभवों और विष्वासों का प्रत्यक्ष निदर्षन मिलता है। इसे सामान्यतः तीन वर्गों मंे विभाजित किया जाता है – पद्य, चंपू (गद्य-पद्यात्मक) तथा गद्य। गद्य विधाओं में प्रमुख रूप से लोकप्रिय लोक कथाओं में लोक की प्रकृति, विकृति तथा संस्कृति खुलकर झलकती है।
संस्कृति को सीखा हुआ व्यवहार भी कहा जाता है, जिसमें समाज के विष्वास, विचार, आचार के अतिरिक्त उसकी रुचियों व कलाकौषल की साफ झलक दिखाई देती है। मानवता के पक्ष में विकसित स्नेह, सहयोग, त्याग, परोपकार आदि की सद्भावनाएं प्रतिबिंबित होती हैं।