
सिनेमा: आजादी:
अपने देश की आजादी के लिए भारतीयों ने जो कीमत चुकाई, वह काबिल ए तारीफ है; लेकिन देश के विभाजन से उत्प्रेरित दंगों ने न सिर्फ आम आदमी की जिंदगी को अस्त व्यस्त किया, बल्कि उनकी सोच को इस कदर झकझोरा कि वह अभी तक उसके असर से आजाद नहीं हो सकी है। इस मननुटाव से हिंदी फिल्म इंडस्ट्री को भी जोर का झटका लगा, मगर जल्द ही हालात पर काबू पा लिया गया। आजाद हिंदुस्तान में कई जागरूक कलाकारों ने समसामयिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय एकता की भावना से प्रेरित विषय लेकर नवीन प्रयोग किए।
1947 से लेकर 1955 तक का समय हिंदी सिनेमा के इतिहास में कलात्मक फिल्मों के निर्माण की बुनियाद रखने वाला माना जाता है। इस अवधि में संेसर की व्यवस्था में बदलाव करके जहां एक ओर भारतीय संस्कृति के प्रतिकूल प्रतीत होने वाले नियमों में देश काल के अनुसार संशोधन किए गए, वहीं दूसरी ओर फिल्मोद्योग व सरकार के अच्छे संबंध बनाने के लिए अनेक सरकारी और अन्य समितियों की स्थापना भी हुई।
1950 से 1970 तक का समय हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम काल कहलाता है। इस कालखण्ड के प्रतिनिधि निर्माता-निर्देशक महबूब, विमल राय तथा राज कपूर माने जाते हैं। अपने देश की बिगड़ी हुई सामाजिक और आर्थिक हालत के बारे में सोचने वाले ये फिल्मकार अपनी फिल्मों के माध्यम से समता, विकास व सद्भावना के आदर्शों की स्थापना करना चाहते थे। इसके लिए वे विशेष सराहना के अधिकारी हैं।