उत्तराखण्ड: मूल बोली:

कुमाउनी समाज की पृथकता इसी तथ्य से उजागर होती है कि वे एक सामान्य परंतु विषिष्ट भाषा मूल के लोग हैं। अयोध्या से आए हुए कत्यूरियों, इलाहाबाद से आए हुए चंदों, विदेषों से आए हुए मुगलों तथा अंग्रेजों की अपनी-अपनी भाषाएं थीं; जिनमें कुमाउनी में दीर्घावधि राजकाज चला और इनका जनमानस पर भी पर्याप्त प्रभाव पड़ा।
कुछ ध्वनियों, षब्दों या रूपों के आधार पर भाषा साम्य घोषित करते हुए कुमाऊं की मूल बोली को किसी प्रकार की कोई चुनौती नहीं दी जा सकती। कोई षासन या षासक अपनी प्रजा को नई भाषा तो सिखा सकता है, पर उससे उसकी लोकभाषा नहीं छीन सकता। लोकभाषाएं आसानी से लुप्त नहीं होतीं, क्योंकि उनकी अपनी जड़ें होती हैं, अपना ढांचा होता है।
कुमाउनी काव्य भावपक्ष तथा कलापक्ष दोनों दृष्टियों से समृद्ध है। यद्यपि कवियों की रचनाओं में प्रायः सभी रस विद्यमान हैं, तथापि वियोग की प्रधानता है। अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग, छंदों की नवीनता, भाषा का सहज सौंदर्य और षैली की रोचकता काव्य को हृदयग्राही रूप देने में सफल हुए हैं। नई-नई उपमाएं और प्रतीक विषयानुकूल भाषा पर चार चांद लगाते हैं। वहां के साहित्य को रूप तथा रंग देने में प्राकृतिक वातावरण, राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थितियों ने महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की है।