
पर्व: परिणति:
कहते हैं कि वक्त किसी का इंतजार नहीं करता। त्योहार की तैयारियों में बीत गया दिन। इंतजार करते करते षाम भी गुजर गई। दीपक से दीपक जल गए, लो आज अंधेरे ढल गए। घर घर में दिवाली है मेरे घर में अंधेरा। यह अंधेरा तभी छंट पाएगा, जब प्रेम का दीप जलाने वाला आएगा।
उसकी राह में नजरें बिछाकर बैठी हुई प्रतीक्षा के लिए एक एक पल भारी है। उसके मन की लगन उसे और कुछ सोचने भी नहीं देती। सारा समाज उजालों से खेल रहा है और वह अपने दिल के दिये के प्रकाष में अपने प्रिय की बाट जोह रही है –
एक वो भी दिवाली थी
एक ये भी दिवाली है
फिल्म – नजराना
दीवाली की जो रात खुले हाथों से जो अपार आनंद लुटाती है, अमित प्रकाष बरसाती है, उसकी परिणति अगली सुबह के उजाले में झलकती है। छतों की मुंडेरों पर लुढ़के हुए दियों, छज्जों की रेलिंग पर गली हुई मोमबत्तियों, सडकों के किनारों पर छितरे हुए पटाखों के खोखों, गलियों के छोरों पर पड़े भस्मीभूत फुलझड़ियों के तारों, आंगनें के कोनों में बिखरे हुए खील बताषों में प्रतिबिंबित होती है।
ताष के बावन पत्ते
पंजे छक्के सत्ते
सब के सब हरजाई
मैं लुट गया राम दुहाई
फिल्म – तमन्ना