लोकगीत : ॠतुगीत :
पर्वतीय प्रकृति के प्रांगण में अलग-अलग ॠतुओं में होने
वाले परिवर्तनों का जायजा लेते हुए लोकगायकों की भावनाएं
भी अलग-अलग प्रकार के गीतों में प्रस्फुटित हुईं। इन्हें ढोली
गायक पहले राजाओं या सामंतों के यहां गाते थे और अब गांवों
के मुखिया लोगों के आंगनों में गाते हैं। अलग-अलग भावनाओं
से अनुरंजित ये गीत शब्दार्थ की दृष्टि से भले ही अलग-अलग
ॠतुओं में गाए जाने वाले प्रतीत होते हैं, पर कथ्य की दृष्टि से
इनके अनेक भेद माने जाते हैं।
चैतू :
चैत्र मास के इन ॠतु गीतों को कुमाउनी में ‘रितु र् वैन ‘
कहते हैं। यह शब्द ‘ॠतुरायण’ का रूपांतर मात्र नहीं, अपने में
एक विशिष्ट भावना संजोए है। ‘र् वैन ‘ का अर्थ है ‘रूलाई आना’
। ॠतुराज के आगमन पर रूलाई क्यों और कैसे? पर बड़ा विचित्र है
यह मन। हर्षातिरेक में भी तो आंसू छलक पड़ते हैं। प्रकृति की सुषमा
न जाने मन की कितनी पीड़ाओं को जगा देती है। हर साल
बसंत ॠतु लौट-पलट आती है, पर बिछड़े मीत नहीं आते –
फूल्या फूल्या बुरांसी का डाना
म्यारा आंखा सुआ डबडबाना
दुखि सुखि केथैणि मैं कूनूं
तेरो बाटो घाटो देखि रूंनूं
मैं निसासी गयूं चानै चाना
म्यारा आंखा सुआ डबडबाना
निरमोई कथीं रमि रये
रितु फेरि ऐ गे तु नि अये
हिय कूंछ न्है जा रे पराना
म्यारा आंखा सुआ डबडबाना