सवाक्:

savaak

सिनेमा: सवाक्:

सवाक् फिल्मों के अंकुर तो 1927 में ही दिखने लगे थे, जो
1931 में आलमआरा के रूप में प्रकट हुए। इसका पूरा श्रेय
इंपीरियल मूवीटोन कंपनी के सर्वेसर्वा श्री आर्देशिर ईरानी को
दिया जाता है। इस फिल्म को बनाने में मूक फिल्मों की
तकनीक ही अपनाई गई थी; जैसे – सूरज की रौशनी में
शूटिंग, पृष्ठभूमि में सीनरी वाले पर्दे, गहरा मेकअप आदि।
पारसी थियेटर की शैली से प्रभावित इस फिल्म में उंचे स्वर
में बोले गए संवादों की भाषा न खालिस उर्दू थी न ही हिंदी,
जिसे हिंदुस्तानी कहा जा सकता है।

सवाक् फिल्मों के निर्माण के साथ एक नया शब्द प्रचलन में
आया – टाॅकी, मानो वे पूरी तरह से संवादों की बुनियाद पर
ही टिकी हों। जब कि संवाद शब्द सिनेमा पर कभी भी हावी
नहीं हो पाया। आवाज के माध्यम से निर्देशकों को भाव
निरूपण का अच्छा साधन अवश्य मिला, पर वह दृश्य पर
आधिपत्य नहीं जमा पाया। नतीजतन टाॅकी के स्थान पर मूवी
शब्द का प्रयोग अधिक प्रचलन में आया।

भारत विभाजन से पहले इंपीरियल फिल्म कंपनी साल में औसतन
6 – 8 फिल्में बना लिया करती थी। इस कंपनी के वेतन भोगी
कर्मचारियों में आर. एस. चैधरी, मोती गिडवानी, मोहन भावनानी,
नंदलाल, जसवंत लाल आदि के नाम उल्लेखनीय हैं। उन दिनों
सुलोचना, जुबैदा, जेबुन्निसा, जिल्लो बाई, जाल मरचैंट, मजहर
खान, याकूब तथा पृथ्वीराज कपूर भी इस कंपनी में काम किया
करते थे। इस कंपनी के द्वारा बनाई गई फिल्मों में माधुरी –
1932, इंदिरा एम.ए. – 1934, अनारकली – 1935 काफी
मशहूर हुईं।

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Published by

Dr. Harishchandra Pathak

Retired Hindi Professor / Researcher / Author / Writer / Lyricist

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