लोकभाषा: तराई:
1947 में भारत विभाजन के समय पंजाब के लोग दुर्गम
अरण्य को आबाद कर कुमाऊँ की तराई में बस गए। इसी
भाँति इसी क्षेत्र में बंगालियों की बस्तियाँ बसीं। सेवानिवृत्त
होने वाले अनेक फौजियों तथा अन्य राजकर्मियों ने भी
पहाड़ वापस जाने के बजाय यहाँ बसना पसन्द किया।
कहने का तात्पर्य यह है कि कुमाऊँ की हरी-भरी घाटियों
ने ही नहीं, उपजाऊ तराई ने भी विभिन्न कालों में विविध
कारणों से अनेक जातियों को अपनी ओर आकर्षित किया।
जीवंत बोलियाँ जब अपने विकास क्रम में त्याग और ग्रहण
की प्रक्रिया से गुजरती हैं, तब उनका शब्द समूह समयानुसार
परिवर्धित होता रहता है। काली कुमाऊँ मेें भी प्राचीनकाल
से अनेक प्रकार की मानव जातियाँ आती-जाती रही हैं,
जिनके सम्पर्क से कुमैयाँ की शब्द संपदा समृद्ध हुई है।
सामाजिक जीवन में पूजा-पाठ एवं धर्मिक अनुष्ठानों में
संस्कृत के व्यवहार एवं शिक्षा के प्रचार के कारण सामान्य
बोलचाल में तत्सम शब्द छाए हैं, अन्यथा कुमैयाँ की
बुनियाद तद्भव शब्द ही हैं। आग्नेय और खस परम्परा
से आगत शब्दों के स्तम्भों पर इस बोली का महल खड़ा
है, जिसके गलियारों में विदेशी शब्दों का प्रचलन है।