लोकगाथा: गंगू रमोला: 18
हिन्दी रूपान्तर:
सौ मन की झोली-कंधे लटकाकर
दोनों भाई (घर को) चल पड़े।
षगुन ग्यानी गुरु को
(घटनाओं का) आभास हो गया।
पीछे-पीछे गुरु (भी) दौडे़।
गुरु, गरुड़ के वेष में दौड़ पड़े।
दो भाई रमोले बाज-बेसरे (पक्षी) बन गये,
उड़ते-उड़ते जब (तीनों) थक गये।
तब रमोले पींपल के वृक्ष बने।
गुरु जी ने हाथ में कुल्हाड़ी ली।
अब धारण किया रमोलो ने सर्प का रूप।
गुरु, गरुड़ बनकर पीछे दौड़े।
दौड़ते-दौड़ते गुरु हारमान हो गये।
वृद्ध गुरु ने अन्त में श्राप दिया-
”विद्याओं के पूरे हो गये हो,
पर यष नहीं पाओगे।“ क्रमशः