सिनेमा: चलचित्र:
सच तो यह है कि विज्ञान के अधुनातन आविष्कारों ने लोक
जीवन में एक नई क्रांति पैदा कर दी है। आकाशवाणी, दूरदर्शन
एवं चलचित्र ने आज शिक्षा, कला, संस्कृति और साहित्य के
नए मानक स्थापित कर दिए हैं, जिनके कारण चलचित्र लोक
शिक्षण का सर्वसुलभ साधन माना जाने लगा है। जनमानस को
मंगलमय संदेश देने का माध्यम समझा जाने लगा है।
मजे की बात यह है कि इनके साक्षर या निरक्षर दर्शक ,
यह जानते हुए भी कि वे प्रकाश और छाया के दृष्टिभ्रम
में बंधे हुए हैं; हंसते हैं, रोते हैं, भावुक भी होते हैं।
संप्रेषण का इससे अच्छा उदाहरण और क्या हो सकता है।
अपनी पुस्तक ‘चलचित्र: कल और आज’ में प्रख्यात निर्माता
निर्देशक सत्यजित राय ने लिखा है कि ‘इसमें कोई संदेह नहीं
कि चलचित्र में विभिन्न शिल्प साहित्यों के लक्षण हैं। नाटक का
द्वन्द्व, उपन्यास का कथानक एवं परिवेश वर्णन, संगीत की
गति एवं छन्द, पेंटिंग सुलभ प्रकाश छाया की व्यंजना – इन
सारी वस्तुओं को चलचित्र में स्थान मिल चुका है।’
‘परंतु बिंब और ध्वनि की भाषा – दिखाने और सुनाने के परे,
जिसकी कोई अभिव्यक्ति नहीं है – पूर्णतया एक स्वतंत्र भाषा है।
फलस्वरूप कथ्य एक ही हो, तो भी भंगिमा में अंतर आना जरूरी
है। यही कारण है कि अन्यान्य शिल्प साहित्यों के लक्षण रहने पर
भी चलचित्र अनन्य है।‘