लोकभाषा: शिल्पकार:
भारतीय इतिहास के रंगमंच पर आने वाली अनेक जातियोें की
आरंभिक शरणस्थली यह क्षेत्र बनता रहा। उत्तराखण्ड के वर्तमान
समाज की संरचना में कोल-मुण्ड, किरात, मंगोल, खस, शक,
द्रविड़, आर्य, हूण, आमीर, गूजर आदि कितनी ही जातियों का
सहकार रहा है।
भाषा, रक्त और सांस्कृतिक परम्पराओं के अध्ययन से स्पष्ट होता
है कि खसदेश और किरातदेश बनने से पूर्व उत्तराखण्ड कोल जाति
का क्रीड़ा स्थल था। कोलजाति के शिल्पकार ही वास्तव में यहाँ के
समाज के प्रारंभिक निर्माता हैं। यहाँ की सभ्यता के विकास में गड़
से लेकर गढ़ तक कोई भी ऐसा काम नहीं, जो इनके शिल्प से न
निखरा हो, जलाशय से लेकर देवालय तक कोई भी ऐसा मुकाम नहीं,
जो इनकी कला से न सँवरा हो।
आदिकालीन महाकाव्य पृथ्वी राज रासो और भक्ति कालीन सूफी
काव्य चित्रावली में कुमाऊँ/ श्रीनगर का उल्लेख पर्याप्त प्रमाण है
कि उन दिनों भी मध्यहिमालय का क्षेत्र मध्यदेश के हिन्दी क्षेत्र से
सम्बद्ध था और मध्य हिमालय की गढ़वाली/ कुमाउनी बोलियाँ आज
तक हिन्दी से ब्रज/ अवधी की तरह जुड़ी हैं।