लोकगाथा: गंगू रमोला: 15
हिन्दी रूपान्तर:
”माँ, हमें इस सूखे पातल में ढक जाना।
पिता को कलेऊ देने चली जाना-निष्चिन्त हो जायेंगे।
हमारे उत्पन्न होने की पोल मत खोलना।
हम बारहवें साल तुझे (स्वयं) मिल जायेंगे।“
रात खुली। प्रातः हुई। (रानी) कलेऊ दे आई।
कुंजानी पातल जोगियों की जमात आई।
तीसरे दिन, बारह नामी बैरागियों ने-
गुरु के आदेष से-वहीं आसन जमाया।
चूल्हा जलाया, चैका बनाया,
लकड़ी के ठुण-मुणों (से)
धूनी जलाई, हवा फूँकी।
गुरु नीलपाल आसन में बैठे।
अर्द्धरात्रि में (उन्होंने) रोने के षब्द सुने।
तैड़ की खाई में दो षिषु पाये।
धूनी-पानी जलाई (गुरु) ने,
(उन्हें) धूनी की आग में रखा।
आग में भी नहीं जले, जैसे के तैसे रहे।
नामड़-तूमड़ (अवैध) होते भस्म हो जाते। क्रमशः